पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३६

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15 फलत गीता-हृदय ऐसा काम होनेकी सभावना रही नही जाती जिममे नमाग्मे अमगल हो, दुनियाका अनिष्ट हो, या सामाग्कि लोग देवा-देवी पयत्रप्ट हो। उमने तो दीर्घकालतक दुमी लोगोके ऊपर दयादृष्टि को ही कर्म किया उमका अग-प्रत्यग दया हो गया है। मंगी, फरुणा वगैरह देवी मम्पत्तियां और उदात्त गण उसके भीतर इस कदर प्रविष्ट हो गये है कि उनमे वह अनजानमे भी लाग्य यत्न करने पर भी अलग हो नही मकता है। इसीलिये जहां पहले लोगोकी भलाईका पयाल करके ही वह काम करता था, तहाँ अव विना उम खयालके ही काम करता ही है। ऐसे ही कर्माको 'लोकमगहार्य कर्म कहने है, जमा कि गौनाने कहा है-"लोकमग्रहमेवापि सम्पश्यन् कामहगि"। यही कर्म पहले मनोयोग- पूर्वक होते थे और अव म्वभावमे ही होते रहते है । दोनो ही दमामे ये रहते है 'लोकमग्रह' के लिये ही । मगर पोले उनमे और भी उदाततामा जाती है, वे और भी ऊंचं दर्जे के हो जाते है । क्योकि ऐने पहुँने हुए महान् पुरुषोकी स्वग्मवाही प्रवृत्तियोके फल-स्वरुप होनेके कारण उनमें कृत्रिमता नही रह जाती । इसीलिये उनमें ऐना पायपण होता है कि जन-माधारण उपर ही बलात् पिच जाते है, एक प्रकारने उन्ही कोंक साथ बंध जाते है और उन्हीको करने लगते है । 'लोकमगह में जो मग्रह शब्द है उसका अर्थ है बांधना या जमा करना और यह बात तभी चरितार्थ होती है । पहुँचे पुरुपोके कर्मों मे तब अपूर्व गक्ति हो जाती है जिसका जादू ग्राम लोगोपर होता है, होके ही रहता है। स्वभावके प्रभाव स्वभावकी बात कुछ ऐसी है कि मनुष्य सस्कारोके मजबूत हो जाने या मानस पटलपर जम जानेसे सपनेमे चीजे देखने लगता है । वहाँ चीजे तो होती नहीं। लेकिन पहले देखी दिखाई चीजोका गहरा सस्कार