पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। ३८४ गीता-हृदय -- एक वृक्षके नीचे विश्राम करी रहे थे कि ऊपरसे किसी वगुलेने उनके ऊपर विष्ठा गिरा दिया। उन्हें वडा गुस्सा आया और आँखें लाल करके जो बगुलेको देखा तो वह जलके खाक हो गया । अव महात्माको विश्वास हो गया कि उन्हें अवश्य योगसिद्धि प्राप्त हो चुकी है। फिर वह आगे चले । उनने भोजनका समय होनेसे गांव में एक गृहस्थके द्वारपर पहुँचके "भिक्षा देहि की आवाज लगाई। देखा कि एक स्त्री भीतर है, जिसने उन्हे देखा भी और उनकी आवाज भी सुनी। मगर वह अपने काममे मस्त थी। इधर महात्माको द्वारपर खडे घटो हो गये | उस स्त्रोकी घृष्टतापूर्ण नादानीपर उन्हे क्रोध आया। ठीक भी था। सिद्ध पुरुषका यह घोर तिरस्कार एक मामूली गृहस्थकी स्त्री करे मगर करते क्या ? आँखोसे खून उगलते खडे रहे और दाँत पीसते रहे कि सहार ही कर दूं। इतनेमे भोजन लेके जो स्त्री आई तो आते ही उसने बेलाग सुना दिया कि आँखे क्या लाल किये खडे है ? मै वृक्ष- वाला बगुला थोडे ही हूँ कि जला दीजियेगा | अब तो उन्हें चीरो तो खून नही । सारी गर्मी ठडी हो गई यह देखके कि इसे यह बात कैसे मालूम हो गई जो यहाँसे बहुत दूर जगलमें हुई थी। फिर तो उन्हें अपनी तप - सिद्धि फोकी लगने लगी। खाना छोडके उनने उस भातासे पूछा कि तुझे यह कैसे पता चला ? उसने कहा कि लीजिये भोजन कीजिये और जनकपुरमे धर्मव्याधके पास जाइये । वही सब कुछ बता देगा। महात्मा वहाँसे सीधे जनकपुर रवाना हो गये । परीशान थे, हैरतमें थे। जनकपुर पहुँचके धर्मव्याधको पूछना शुरू किया कि कहाँ रहता है। समझते थे, वह तो कहीं तपोभूमिमें पडा वडा महात्मा होगा। मगर पूछते-पूछते एक हाटमे एक ओर एक आदमोको देखा कि मास काटता और बेचता है और यही धर्मव्याध है । सोचने लगे, उफ, यह यही धर्मव्याध मुझे धर्म-कर्मका रहस्य बतायेगा? मगर कौतुक- क्या ?