२० गीता-हृदय विधाया बाहर प्राके पुकारता है । मगर पहुँचे पुरुषोंके कामो ग्रीन गन्दीमें तो कवितामे लार गुना गवित होती है अपनी पोर नीचनंती । क्योकि कवितामे जहाँ कुछ कृत्रिमता होती ही है, तहां उनके पाम पोर पर विल्कुल ही अकृत्रिम होते है। स्वामी विवेकानन्दने परमहम गमकृष्णको जीवनीमे लिया कि जब मै उनके पास यह जानके दौड़ा दौडाया पहुँचा कि भगवानसे वे बटे भक्त है और मुझे तो भगवानकी मत्ता ही स्वीकार नही, उनिए व कुत्र चीजे बतायेगे जिममे में उम ताके गम्बन्चमे नो चिनारंगा, नो वहाँ अजीव हालत देसी। उनने मेरे प्रश्न के उत्तरम कोई ना दलील न के चट कह दिया कि “हां, मै तो भगवानको 17 वैमे ही देखता है जैसे तुम मुझे देखते हो।" मगर इन मीषंगादे शब्दोमे क्या गादू धा उनम क्या गजवकी ताकत थी | जहाँ बसे बडे दिमागदारती दलीले मुझपर इस वारेमे जरा भी अमर कर न सकी थी, तहां इन्ही शब्दोंने कमाल किया और मुझे मजबूर किया कि उन परमहराजी को मैं अपना गुदेव बना लूँ। हुअा भी ऐमा ही और मै उमी क्षणमे घोर नास्तिक और अनीश्वर- वादीसे परम आस्तिक एव ईश्वरवादी बन गया । यह शक्ति उन पदो- की नितान्त अकृनमतामे ही थी । परमहह्मजीका वाहर-भीतर एक रस था। वे जैमा वोलते वैसा ही मोचते और करते भी थे। दिन, दिमाग, जवान और काम-इन चारो-में उनके यहां नामजस्य था। यह नहीं कि दिलमे कुछ, दिमागर्म दूमरी ही, जवानपर तीसरो और काममे चीथी ही चीज हो जाय । यही महात्मापन है । महात्मा और दुरात्मा पुराने लोगोने कहा है कि महात्मा उसीको कहते है जो दिल-दिमागमे सोचे विचारे जो कुछ वही जवानसे भी बोले और वैसा ही काम भी करे ।
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