पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३८९

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३६६ गीता-हृदय इसी बीच युधिष्ठिर सवोंके साथ ही पहले भीष्मके पास और पीछे क्रमश द्रोण, कृप और शल्यके पास गये और चारोको प्रणाम करके लडने- की आज्ञा तथा सफलताको शुभेच्छा चाही । पहलेके तीन तो हर तरहसे माननीय थे। शल्य भी था माद्रीका भाई और भीम आदिका मामा । वह मद्रदेशका राजा था। उसने युधिष्ठिरको आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सबोने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय है और जिसका जिक्र हम पूर्व भागमें कर चुके है । चारोके मुखसे एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार है, "अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । इति सत्य महाराज, वद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवै ।" यही श्लोक भीष्मपर्वके ४३वें अध्यायका ४१वा, ५६वाँ, ७१वा तथा ८२वा है। इसका सीधा अर्थ यही है कि "महाराज, अन्नधनका गुलाम आदमी होता है, न कि आदमी- का गुलाम पैसा, यह पक्की बात है। इसीलिये कौरवोने हमें गुलाम बना लिया है।" जिन्हें मौतपर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जीके खिलाफ न तो हार सके और न मर सकें उन लोगोने जब ससारका पक्का नियम ऐसा बता दिया और हिम्मतके साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल कर ली, तो मानना ही पड़ेगा कि यह बडी बात है। इसीलिये इस अप्रिय सत्यपर पूरा ध्यान न देके जो लोग कोरे अध्यात्मकी राग अलापते रहते है वे कितने गहरे पानीमें है यह बात स्पष्ट हो जाती है । भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य तो ऐसा कहे और हम अध्यात्मसे जरा भी नीचे न आयें यह विचित्र वात है । लेकिन जैसा कि हम दिखला चुके हैं, गीता इस कठोर सत्यको खुव मानती है। वह इसे स्वीकार करके ही आगे बढी है । शायद कोई ऐसा समझ ले कि उन महानुभावोने योही ऐसा कह दिया है। इसलिये उसीके बाद जो श्लोक चारो जगह आये है वे सोलहो आने एकसे न होनेपर भी अभिप्रायमें एकसे ही है। वह इस बातको और भी खोल