पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४००

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पहला अध्याय ४०७ . हे कृष्ण, (मै) विजय नही चाहता, न राज्य ही चाहता हूँ और न सुख ही। हे गोविन्द, राज्य, भोग और जिन्दगी (भी) लेकर हम क्या करेगे ? ३२॥ येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थितायुद्धे प्राणास्त्यक्त्वा धनानि च ॥३३॥ जिनके लिये हमे राज्य, भोग और सुखोकी चाह थी ये वही लोग (तो)प्राणो और धनो (की माया-ममता)को छोडके युद्धमे डेटे है | ३३। प्राचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः । मातुलाःश्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥३४॥ आचार्य, बड़े बूढ़े, लडके, दादे, मामू, ससुर, पोते, साले और सम्बन्धी (लोग)-३४१ एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराजस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥३५॥ (यदि) हमें मारते भी हो (तो भी) हे मधुसूदन, मै इन्हे त्रैलोक्य (ससार) के राज्यके लिये भी मारना नही चाहता, (फिर इस) पृथ्वीकी (तो) बात ही क्या ?३५॥ निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥३६॥ हे जनार्दन, धृतराष्ट्र के सम्बन्धियोको मारके हमे क्या खुशी होगी ? (उलटे) इन आततायियोको मारके हमे पाप ही लगेगा ।३६। स्मृतियोमे छे तरहके लोगोको आततायी कहा गया है । "जो आग लगाये, जहर दे, हाथमे हथियार लिये उँटे हो, किसीकी धन-सम्पत्ति छीनते हो, जमीन (खेत) छीनते हो और दूसरोकी स्त्रीको हरें-यही छे- आततायी कहे जाते है"-"अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापह । क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिन" (वसिष्ठस्मृति ३।१६) ।