पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४०४

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पहला अध्याय ४११ (विपरीत इसके) अगर मै शस्त्र-रहित होके अपने बचनेका भी कोई उपाय न करूँ (और ये) शस्त्रधारी दुर्योधनके आदमी मुझे मार (भी) डाले तो भी मेरा भला ही होगा ।४६। संजय उवाच एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥४७॥ सजय बोला-चिन्ता और अफसोससे उद्विग्न चित्त अर्जुन ऐसा कहके (और) धनुष बाणको छोडके युद्धके मैदानमें ही रथमे बैठ गया ।४७। इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णा- र्जुनसम्वादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ श्रीमद्भगवद्गीताके रूपमें उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्रमे जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सम्बाद है उसका अर्जुन-विषाद- योग नामक पहला अध्याय यही है । अर्जुनका विषाद, यद्धकी हानियाँ और फलस्वरूप लडनेमे अर्जुनका जो विराग इस अध्यायमे दिखाया गया है वह सभी युद्धोकी समाज- घातकताको बताके उनकी निन्दा करता है। जिनने बीसवी शताब्दीके साम्राज्यवादी युद्धोको देखा और जाना है वह बखूबी समझ सकते है कि इनसे कुल, जाति, देश और उनके धर्मोका कितना भयकर सहार होता है और सभी प्रकारके पतनका सामान वे किस कद्र जमा कर देते है। उनके चलते समूचे देशके देशकी हर तरहकी प्रगति किस प्रकार रुक जाती और समाज अवनतिके अतलगर्तमे जा गिरता है यह बात उन्हे साफ विदित है। इसीलिये अर्जुनकी बाते वे आसानीसे समझ सकते है । फलत इनमे उन्हे कोई अलौकिकता मालूम न होगी।