४६४ गीता-हृदय बात क्यो कही गई ? वात असल यह है कि आखिर इन तीनोंसे पिंड छूटनेका उपाय भी तो होना चाहिये, और जैसा कि चौदहवें अध्यायके अन्तमे कहा है, "विषस्य विपमीषधम्"के अनुसार जैसे जहरको जहरसे ही मिटाते है, और "कण्टकेनेव कटकम्"के अनुसार कांटेसे ही काटेको हटाते है, ठीक उसी तरह गुणकी ही मददसे गुणोंसे पिंड छुडाना होगा। दूसरा उपाय है नहीं । गुणोमे भी दो तो चौपट ही ठहरे । हाँ, सत्त्वका काम है ज्ञान, प्रकाश, सुझाव, पालस्य त्याग, फुर्ती और मुस्तैदी। इसीलिये कहा गया है कि सत्त्वका ही प्राश्रय वरावर लेके उक्त विशेषतायें हासिल करो और अन्तमे तीनोसे ही छुटकारा लो। वरावर, निरन्तर, नित्य सत्त्वगुणका आश्रय लेनेको कहनेका आशय यही है । जव जब रज और तम दवाके आलस्य आदिमें फंसाना चाहें तव तव मुस्तैद होके सत्वगुणकी मददसे उनसे लडना और उन्हे भगाना होगा। तभी काम चलेगा। यही बात शान्तिपर्वके धर्मानुशासनके ११०वे अध्यायके “ये च सशान्तरजस सगान्ततमसश्च ये । सत्त्वे स्थिता महात्मनो दुर्गाण्यतितरन्ति ते” (१५), मे भी “सत्त्वे स्थिता" शब्दसे वताई गई है। पहले यह कहा है कि उनके रज और तम एकबारगी दव गये हैं। फिर सत्त्वके कायम रहनेकी वात आई है। इससे साफ हो जाता है कि सत्त्व नित्य रहता है, वरावर रहता है। क्योकि दोनो शत्रु शान्त जो हो गये, खत्म जो हो गये । शान्तिपर्वके इसी श्लोकका "महात्मान" शब्द गीताके 'आत्मवान्'के ही अर्थको कहता है। महात्मा लोगोकी आत्मा महान् होती है। इसका तात्पर्य यह है कि उनका मन छोटी-छोटी, ससारकी क्षुद्र वातोमें न पडके वहुत ऊपर चला जाता है, बडा बन जाता है, आत्मतत्त्वमे लग जाता है। यही वजह है कि वह द्वन्द्व या राग-द्वेष, शत्रु-मित्र, सुख-दुख आदिसे अलग हो जाता है। उसे इस वातकी भी फिक्र नही होती कि अमुक चीज नही है, उसे कैसे लाऊँ और मिली हुईकी रक्षा कैसे हो आदि आदि । इसे ही
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