४७२ गीता-हृदय नहीं होता। तब तो गलत-सही किसी बातको पकडके बैठ रहता कि यही ठीक है। इसीलिये तो नादानीको बहुत हद्दतक दिक्कतोकी ढाल माना है। मगर हो क्या ? यह बेचारा तो समझदार ठहरा । इसीलिये पहले श्लोकमे कहा है कि जब योगरूपी विवेकबुद्धि मिल जायगी तो यह सभी पढने-पढाने एव विचार-विमर्शकी परीशानी एकाएक जाती रहेगी। तब दिल चाहेगा ही नही कि एक भी पन्ना उलटे या एक वातका भी खोद-विनोद करें। जैसे पका फल डालसे अकस्मात् अलग हो जाता है, वैसे ही ये सभी बाते दिलसे हट जाती है या दिल ही इनसे अलग हो जाता है । वह इन्हे पूछता भी नही । इसीको निर्वेद या वैराग्य कहा है। जब मन या दिल विरागी बन गया तो फिर वेदशास्त्रके हजार तरहके वचनोके करते जो बुद्धिकी परीशानी थी, वेकली और बेचैनी थी उसपर भी पर्दा पड जाता है, वह भी आप ही आप जाती रहती है-मिट जाती है। जैसे कोई आदमी बडी परीशानीमें चारो ओर दौड-धूप करता- कराता तबाह हो, मगर अन्देशे या परीशानीके मिटते ही शान्त हो जायें और सुखकी सॉस ले। ठीक वही हालत बुद्धिकी हो जाती है । उसकी सारी दौड-धूप बन्द हो जाती है। हमेशाके लिये वह निश्चल एव निश्चिन्त बन जाती है । यही बात दूसरे श्लोकमें कही गई है। यह भी वात योगके प्रतापसे ही होती है। इसीलिये इसे भी योग प्राप्तिकी पहचान बताया है । यहाँपर अचला और निश्चला ये दो शब्द आये हैं जिनका अर्थ एक ही है। इसीलिये खयाल हो सकता है कि दोमें एक बेकार है। मगर बात यह है कि बुद्धिमें जो स्थिरता आ गई वह दो तरहकी हो सकती है । एक तो तात्कालिक या कुछ समयके ही लिये । दूसरी हमेशाके लिये । कही ऐसा न समझ लें कि तात्कालिक शान्ति और स्थिरतासे ही काम चल जाता है । इसीलिये लिखा है कि निश्चल बुद्धि जब अचल हो जाती
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