४८८ गीता-हृदय ? समोहसे स्मृतिका खात्मा हो जाता है और यही छठी वात है। घोर अँधियालीमें सूझने क्यो लगा ? अँधियालीका तो काम ही है कि किसी चीजका पता लगने न दे। स्मृति या स्मरणके भ्रगका अर्थ इतना ही है कि स्मृति हमेशाके लिये खत्म न होके तत्काल जाती रहती है। यह तो कही चुके है कि दिमागमें सारी बातोके सुक्ष्म चित्र है। वह भौतिक या बाहरी कान, आँख आदि तो है नही। इसलिये प्रत्यक्ष अनुभव तो उन बातोका होता नहीं । किन्तु वह स्मरण हो पाती है। यही दिमागका देखना है और क्रोवके चलते यही हो पाता नहीं; रुक जाता है । जितनी वाते पहले देखी-सुनी, पढी-लिखी या जानी थी एककी भी याद नहीं हो पाती। सब चौपट । इसका परिणाम यह होता है कि भले-बुरे, कर्तव्य-अकर्तव्य, आत्मा- अनात्मा आदिका विवेक हो पाता नहीं-यह विवेक-शक्ति ही कुठिन हो जाती है और अपना काम कर पाती नहीं। यही सातवी चीज होती है। विवेक या विचार है क्या चीज यदि जानी-सुनी बातोका जोड-बटोर और मिलान नहीं है ? समय-समयपर सभी तरहकी वाते हम जानते रहते है और उनका सस्कार दिमागमें पड़ा रहता है। कभी कुछ जानते तो कभी कुछ । एक बार एक चीज जानते, तो दूसरी बार दूसरी और कभी-कभी पहलेकी विरोधी। एक लम्बी वातका एक अश अाज, एव कल, दो परमो इम तरह भी जानते रहते है। एक दिन जिसे सही जानते है, दूसरे दिन उसीको अगत या पूरा-पूरा गलत जानते है । ये सारी जानकारियां--सारी बाते-फोटोकी तस्तीपर के चित्रकी तरह दिमागगे पटी रहती है। दिमागका यही काम है कि समय-समयपर इन्हे जोड- बटोरकर-इन्हे स्मरण करके-एकत्र करके-पीर काट-छांटक एक नई वात, नई चीज, नया निश्चय तैयार करे। इने ही विवेक कहते है । विवेकका अर्थ है वाट-छाँट, जोड-बटोर करना, चावलको भूमे गे जुदा -
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४८०
दिखावट