पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५०५

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तीसरा अध्याय ५१३ कर्मकी, और कभी फिर उलटके कर्मकी, तब ज्ञानकी। इससे सफाई तो हो पाती नही । किन्तु उलटे सुननेवाला घपलेमे पड जाता है। इसी- लिये दूसरा इल्जाम यही है कि बुद्धिको पशोपेश और घपलेमे डालते है। मगर असलमे तो ये इल्जाम है नही । भला, अर्जुन जैसे शरणागतके साथ कृष्ण ऐसा क्यो करने लगे ? वह तो किसीके भी साथ ऐसा नही कर सकते थे। फिर अर्जुनकी तो बात ही जाने दीजिये। इसीलिये-- और अर्जुन उनपर यह इल्जाम लगाता भी कैसे ? यह तो बडी भारी गुस्ताखी और छोटे मुँह बडी बात हो जाती-इसलिये भी दूसरे श्लोकमे दो बार ‘इव' आया है, जिसका अर्थ यही है कि मुझे मालूम होता है कि आप ऐसा कर रहे है। हो सकता है, इसमे मेरी समझका ही दोष हो । अर्जुन वह दोष अपने माथेपर ही लेनेको तैयार भी था। क्योकि वह तो शरणागत शिष्य बन चुका था। फिर दूसरी हिम्मत करता तो कैसे ? इसीलिये वह अब ऐसी सफाई चाहता है जिससे बखूबी समझ जाय और सन्देहकी गुजाइश रही न जाय । श्रीभगवानुवाच । लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुराप्रोक्तामयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥ श्रीभगवानने उत्तर दिया-हे पापरहित (अर्जुन), इस ससारमे दो प्रकारके मार्ग हमने पहले ही-पूर्व समयमें-ही बताये है (एक तो) ज्ञानियोका ज्ञानयोग और दूसरा योगियोका कर्मयोग ।३। यहाँ पुरा शब्दका कुछ लोग 'पहले' अर्थ करके दूसरे अध्यायमे कही गई दो निष्ठाओ या बताये गये दो मार्गोंको ही पुरा शब्दसे लेते है, क्योकि तीसरे अध्यायके पहले वह बात आ चुकी है। मगर यह बात ठीक नही है। पुराका अर्थ है असलमे पूर्व समयमे । यही अर्थ गीतामे ३३