तीसरा अध्याय ५३६ ऊपर समस्त शक्तिका केन्द्रीभूत (Concentration) होना । हाय- तोबा खत्म हो जानेसे बेचैनी-परीशानी-भी नही रहती। वह बराबर मस्त भी रहता है। जिनका विचार हो कि विद्वान स्वय तो कर्म लगनके साथ जरूर करे। मगर अज्ञानियोको कुछ समझाता-बुझाता भी रहे कि वे कर्ममे आसक्ति छोडे और अपनी प्रगतिका रास्ता साफ करे, उन्हीके लिये आगेके चार (२६-२६) श्लोकोकी बाते है। दरअसल अविद्वान और अज्ञानी जनोको दो दलोमे बाँट सकते है। एक तो ऐसे लोगोका, जो कुछ न कुछ समझते है सही। फिर भी विद्वानोके समान या उनके समाजके लायक नहीं होते। उन्हे अक्षरकटू कहिये, टुटपुंजिये समझदार कहिये, या अर्द्ध-दग्ध कहिये । मगर उनमे इतनी ही विशेषता होती है कि वे बाते समझते है, समझानेसे कम-बेश समझ सकते है। इसीलिये वे गीताकी गिनतीमे और गीताधर्मकी ओर अग्रसर होनेवालोमे भी आ सकते है, यद्यपि उनका दर्जा सबसे नीचे या बहुत नीचे होता है। ऐसे ही लोगोके बारेमे "असक्त स विशिष्यते" (३७) कहा गया है । उन्हे समझाना- बुझाना ठीक ही होता है-उसका कुछ न कुछ परिणाम होता ही है, फिर चाहे जल्द हो या देरसे हो । मगर दूसरा दल ऐसोका होता है जो चीटेकी तरह कर्मोंसे लिपटते है, ऊँटकी पकड पकडते है । वे जिस चीजको पकडते है उसे छोडना जानते ही नही । वे इतने सीधे और भोले होते है कि विवेक और अक्लसे उन्हे ताल्लुक होता ही नही । वे तो सिर्फ देखा-देखी करते है। उन्हें समझा- इयेगा तो शायद ही समझे। इसीलिये सीधे कह दीजिये कि यह काम करो और वे उसमे तन-मनसे लिपट पडेगे। सच पूछिये तो उन्हीके लिये कह सुनानेकी अपेक्षा कर दिखानेकी जरूरत कही ज्यादा होती है। पहले जो कृष्णने अपना दृष्टान्त देकर लोकसग्रहका विवरण बताया है वह
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