पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५३२

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तीसरा अध्याय ५४१ न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥२६॥ कर्मोंमे लिपटे-चिपटे भोले अज्ञानी जनोकी (उस ऊँटकी पकडवाली एक) अक्लको छिन्न-भिन्न (हर्गिज) न करे। किन्तु योगी विद्वान स्वय सभी कर्मोको करता हुआ (देखा-देखी) उनसे भी करवाये ।२६। प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते ॥२७॥ (क्योकि यद्यपि) प्रकृतिके गुणोके द्वारा ही सभी कर्म किये जाते है (न कि आत्मा करती है । तो भी) जिनकी आत्मा अहन्ता-ममता- मै और मेरेके खयाल-के करते बिलकुल ही मोहमे-घोर अँधेरेमे-- फंसी है, फलत जिन्हे (कुछ भी नहीं सूझता,) वह अपने आपको ही करनेवाले माने बैठे होते है ।२७। तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्त्वा न सज्जते ॥२८॥ हे महाबाहो, (इसके विपरीत) जो लोग गुणो और कर्मोके हिसाब- किताब और व्योरेको पूर्ण रूपसे जानते है-उसकी असलियतको देखते है-(कि किस गुणके साथ किस कर्मका कैसा ताल्लुक है) वह तो, यही जानकर कि गुणोसे बनी कर्मेन्द्रियाँ ही उन्हीसे बने कर्मोमे लगी है, उन कर्मोंमे लिपटते नही ।२८। प्रकृतेर्गुणसमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥२६॥ (लेकिन) जो प्रकृतिके गुणोकी इन सभी वातोको कतई जानते ही नही, वे गुणोके कर्मोमे खुद फंस जाते है । (इसीलिये) सारी बातोको पूर्ण रूपसे न जान सकनेवाले उन नादानोको सभी वातोका जानकार आदमी (हर्गिज) घपलेमे न डाले ।२६।