पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५५५

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५६४ गीता-हवय' अर्जुनने पूछा-यापका जन्म तो घर हालमे ही हुआ है और विवस्वान तो बहुत पहले पैदा हुए थे। (तव) कैसे मानूं कि अापने ही शुस्मे (उन्हें यह चीज) बताई गी? १४॥ श्रीभगवानुवाच । बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यह वेद सर्वाणि न त्व वेत्य परन्तप ॥५॥ श्री भगवानने उत्तर दिया- हे अर्जुन, हे परन्तप, मेरे और तुम्हारे भी बरतेरे जन्म हो चुग है। में उन राबोको ही जानता हूँ। (हाँ) तुम नहीं जानते ।। अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृति स्वामधिष्ठाय सभवाम्यात्ममायया ॥६॥ वेगक, मै जन्म-रहित हूँ मेरी प्रात्मा निर्विकार है और मै सभी सत्ताधारियोका पासन करनेवाला भी हूँ। (ताहम) अपनी प्रकृतिके नियमोके अनुसार ही में अपनी मायामे ही जन्म लेता हूँ।६। यदायदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मान सृजाम्यहम् ॥७॥ परित्राणाय साधना विनाशाय च दुप्कृताम् । धर्मसस्थापनार्थाय सभवामि युगे युगे ॥८॥ हे भारत, जभी-जभी धर्मका ह्रास या सात्मा होता है और अधम की वृद्धि हो जाती है तभी-तभी मै अपना शरीर बनाता है। (इसीलिये) भले लोगोकी रक्षा, बुरे लोगोके नाश और धर्मकी जडको मजबूत करने के लिये मुझे समय-समयपर जन्म लेना ही होता है ।७।८। इस अवतारके सिद्धान्तका क्या दार्शनिक रहस्य है और उसपर "प्रकृति स्वामधिष्ठाय" (४६),मे दिव्य। (४६) मे "दिव्य" तथा "प्रात्ममायया"