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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५५७

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५६६ गीता-हृदय और वैसे समझदार आदमीके लिये, जिसने स्मृतिकारोकी भी धज्जियां शुरूमें ही उडाई थी और उनके तर्कोको अमान्य कर दिया था, कृष्णका यह कहना कि तुम कुछ नही जानते हो कहाँ तक ठीक हो सकता है, यदि उस जानकारीका यही अभिप्राय हो? इसीलिये पाँचवे श्लोकमें जो 'वेद' क्रिया लिखी है, उसका अर्थ प्रत्यक्ष अनुभव या साक्षात्कार ही है। इसीलिये आगे के वे श्लोकमे इसी जानकारीके मानीमें इसी विद धातुसे बने और वेदके ही अर्थमें प्रयुक्त वेत्ति क्रियाका तत्त्वत' विशेषण दिया गया है। इससे तत्त्वज्ञान ही उसका अभिप्राय सिद्ध होता है और तत्त्वज्ञानका अर्थ हमेशा साक्षात्कार ही माना जाता है। वह ऐसा ज्ञात हो जैसे कि आँखोके सामने कोई चीज खडी हो। कृष्णको पूर्ण प्रात्म-साक्षात्कार रहनेके कारण ऐसा ही ज्ञान था। मगर अर्जुनको न था। उसे अगर कुछ भी थी तो केवल धुंधली स्मृति या पढी-सुनी बातोकी याद मात्र । इसीलिये उसे धीरेसे कृष्णने हँसते-हँसते इन्ही शब्दोमे एक कनेठी दे दी कि तुम्हें क्या मालूम कि मैने कब कहां जन्म लिया था, मै कव कहाँ मौजूद था | वेद शब्द उपनिषदोमें ऐसे ही देखनेके मानीमे वरावर आया है। इसीलिये कृष्णने आगे यह भी कह दिया है कि जिस तरह मै यही बैठा अपने तमाम अवतारो और तुम्हारे तथा दूसरोके अनेक जन्मोकी सारी बाते जैसे आंखो देख रहा हूँ, वैसा ही अनुभव जिसे हो वही जीवन्मुक्त है। मुझमे और उसमें जरा भी भेद नही रह जाता। अपने भीतर जो कुछ होता हो जैसे उसका करारा और ताजा प्रत्यक्ष अनुभव होता है वैसा ही अनुभव जब सारे ससारके सम्बन्धमे होने लगे, जिसे "प्रात्मौपम्येन सर्वत्र" (६।३२) में कहा है, तभी “सर्वभूतात्मभूतात्मा" (५७) कहना चरितार्थ होगा । यो ही बातें करने और पढी-सुनी बातें दुहरानेसे ही नहीं । अतएव इसी दर्शन एव अनुभवकी कोशिश होनी चाहिए ।