पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५८२ गीता-हृदय 11 11 ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हृतम् । ग्रीव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥२४॥ (जिस यज्ञमें ऐसी भावना है कि) आहुति ' आदिके ' साधन स्व आदि ब्रह्म ही है, घृतादि हवनके पदार्थ भी ब्रह्म है,' ब्रह्मरूपी ,अग्निमें ब्रह्मरूपी यजमान ब्रह्मरूपी हवनक्रिया करता है, उस समूची यज्ञात्मक क्रियाको ब्रह्मका रूप मिल जानेसे वह पूर्ण समाधि ही हो गई । इसलिये उससे ब्रह्मकी ही प्राप्ति होती है ।२४। वैवमेवापरे ' यज्ञ योगिनः · · पर्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजह्वति ॥२५॥ दूसरे योगी इन्द्र आदि देवताओंके ही यज्ञका अनुष्ठान करते हैं। कुछ और लोग ब्रह्मरूपी अग्निमे ही देहधारी प्रात्माका हवन ज्योका त्यों कर देते है ।२५॥ श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।। शब्दादीविषयानन्य इन्द्रियाग्निषु' जुह्वति ॥२६॥ (चौथे प्रकारके) कुछ लोग श्रोत्र आदि इन्द्रियोका हवनः सयमरूपी आगमें करते है। (पांचवें) दलवाले शब्द आदि विषयोका हवन ज्ञान- इन्द्रियरूपी अग्निमें ही करते है ।२६। सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । प्रात्मसंयम योगाग्नौ जह्वति' ज्ञानदीपिते ॥२७॥ (छठे प्रकारके) लोग सभी इन्द्रियोकी तथा प्राणकी भी सभी क्रियाओं- का हवन मनके सयमरूपी अग्निमें, जो ज्ञानके द्वारा खूब धौंकी जा चुकी है, करते है ।२७। द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योग यज्ञास्तथाऽपरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः ‘संशितव्रताः ॥२८॥ दूसरे भी कल्याणार्थ यत्न करनेवाले लोग है जिनके व्रत या यज्ञोंके . 1 " 1