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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५७८

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चौथा अध्याय ५८७ 1 यही इसकी विशेषता है । जो कुछ कहा गया है उसका निचोड यही है कि कोई भी काम करनेमे शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिके एक साथ होनेपर ही वह पूरा होता है और उसकी पूर्ण जवाबदेही होती है। लेकिन यदि मन और बुद्धिको उधरसे खीच ले और केवल शरीर या इन्द्रियोको ही-क्योकि बाहरी इन्द्रियाँ या हाथ-पाँव आदि शरीरमे ही आ जाते है। इसीलिये श्लोकमे 'शारीर' कहा है-उसे करने दे, तो जवाबदेही छूट जाती है। यही बात श्लोकमे “यत्तचित्तात्मा" और "केवल शारीर" से कही गई है। 'केवल शरीरसे' यह तो 'यत्तचित्तात्मा' होने या मन और बुद्धिको काबूमे कर लेनेका परिणाम ही है। इसकी पहचानके लिये 'त्यक्तसर्वपरिग्रह' कहा है। सब लवाजिम और डल्ले-पल्लेसे नाता तोड लेना-न कोई आगे हो न पीछे, न घरबार हो और न दूसरी ही कोई जरा भी सम्पत्ति । तभी तो पक्की पहचान होती है कि सचमुच इस आदमीका मन किधर है । कुछ भी घर-गिरस्ती या कपडा-लत्ता होनेपर मन उसीमे जाता ही है। यहाँ यह भी जान लेना होगा कि यद्यपि सकल्प और आसक्तिको आमतौरसे एक ही मानते है , तथापि दोनोमे कुछ न कुछ फर्क है । सकल्प भी आसक्तिका ही एक रूप है। मगर कोई भी काम शुरू होनेके पहले जो आसक्ति होती है, चाहे उस कामके पूरे होनेकी या फलकी, या दोनोकी ही, उसके फलस्वरूप जो मनमे उसके बारेमे तरह-तरहकी कल्पनाये होती है कि यो करेगे, त्यो करेगे वही सकल्प है। काम शुरू होनेपर उसके खत्म होने-न होनेके बादतक जो कर्म और फलसे मनका चिपकना है वही आसक्ति है । इसीलिये मौलिक भेद न होनेपर भी कुछ न कुछ भेद हई । इसीलिये दोनोको जुदा-जुदा कहा गया है । गीतामे कई बार ऐसा मौका आया है। यही यह भी जान लेना चाहिये कि यह “सम सिद्धावसिद्धौ" तीसरे अध्यायमे तो आया नही। यहीपर इस अध्यायमे एक बार और