चौथा अध्याय ५६७ , वह सारे ससारके पदार्थोको अपने ही भीतर--अपनी आत्मामे--अपने आपमे---एक एक करके सिनेमाके चित्रोकी तरह साफ साफ चलते फिरते और काम करते देखता है । उन्हे परमात्मामे भी देखता है । वह तो प्रत्यक्ष ही देखता और मानता है कि मै ही परमात्मा हूँ और मुझीमे यह सारी दुनिया है । ससारके पदार्थोके रगरगमे अपने परमात्माको-- अपने आपको-प्रोत प्रोत एव विधा हुआ देखके वह आश्चर्य एव आनन्दमे मस्त हो जाता है । यही दशा होने पर ही तो वामदेव बोल उठे कि मै ही, मनु, सूर्य, और सभी कुछ हूँ। यह श्लोक अर्जुनसे कहता है कि ज्ञान होने पर तुम्हारी भी यही हालत हो जायगी, याद रखो । फलत जब तक ऐसी मस्तीकी दशा न आ जाये उसके लिये निरन्तर यत्न करना ही होगा। लेकिन यह अद्वैत तो तभी पूर्ण और सच्चा होगा जव आत्मा-परमात्मा- की एकताके अनुभवके साथ ही यह भी दीखने लगे कि यह जगत्, इस जगत्- के सभी पदार्थ हमसे-आत्मासे-~-पृथक नही है । तभी वास्तविक अद्वैत ज्ञान होगा। यह बात भी इस श्लोकमें है । 'अशेषेण भूतानि' कहनेसे सत्ताधारी हरेक भौतिक पदार्थके वारेमे ऐसा देखनेकी बात साफ हो जाती है। मगर यह कैसे सभव है जब तक आत्माके अलावे अन्य पदार्थोकी स्वतत्र, जुदी सत्ताका अभाव न माना जाय -उनके पृथक् अस्तित्वका अभाव न माना जाय ? सोनेके कडे कगन आदिको देखके कोई भी अनुभव कर सकता है कि इनमे सर्वत्र सोना ही सोना है, ये चीजे सोनेमे ही है, सोनेसे अलग नहीं है । इसी प्रकार मिट्टीके अनेक वर्तनोके बारेमें भी मिट्टी ही मिट्टीका अनुभव करके कह सकता है कि ये सभी पात्र मिट्टीमें ही है, मिट्टीमय है, मिट्टीसे जुदे नही है । लेकिन यह कभी नही हो सकता कि इन वर्तनोके बारेमे कहा जाय कि ये सोनेमे ही है मोनेसे अलग नही है। या कगन, कडे अादिके वारेमे कहा जाय कि ये मिट्टी ही है, मिट्टीसे अलग नहीं है। क्योकि इन दोनोमे-सोने और मिट्टीमे--कोई मेल है - -
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