पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५९१

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६०० गीता-हृदय ? रूपेण आवश्यक है और यही उसमें है नही। वह कोरा ही है, यही तात्पर्य है। श्रद्धा हृदयकी चीज है। केवल तर्क-दलीलो पर ही निर्भर न करके विश्वास करना ही पड़ता है। तभी ज्ञान होता है । मगर जो श्रद्धालु नहीं है, उनका हृदय नीरस होता है । फलत केवल दिमागी तर्कोसे ही वे निश्चय करना चाहते है। परिणाम यह होता है कि बात-बातमें शक करते रहते है। क्योकि "तर्कोऽप्रतिष्ठ "के अनुसार तर्कतो कही जाके स्थिर हो नहीं सकता। वह तो पहरेदार सिपाही है और वह पहरेदार सिपाही क्या जो बराबर चलता न रहे और स्थिर या खडा हो जाय और जब कही किसी बात पर स्थिरता नही, निश्चय नही, तो सर्वत्र सशयका एकच्छत्र राज्य समझिये। फिर तो मौत ही मौत है । क्योकि खान- पान आदिमे भी सशय हो सकता है कि पाचकने जहर तो नही दे दिया है, बाजारसे मँगाई चीजोमें ही किसी शत्रने विष तो नही मिला दिया है, आदि आदि । इसीलिये इस दुनियाका काम ही जब नही चल पाता तो ऐसे लोगोका परलोक क्या बनेगा खाक ? योगसन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । प्रात्मवन्त न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥४१॥ हे धनजय, जिसने कर्म करते-करते अन्तमे उसके सन्यासकी दशा प्राप्त कर ली है, जिसने आत्मज्ञानके बलसे सशय को खत्म कर दिया है (और इसीलिये) जिसने आत्माको पा लिया है कर्म उसे बन्धनमें डाल नही सकते ।४१॥ यहाँ 'आत्मवन्त' कहनेका अभिप्राय यही है कि वह आत्मावाला हो गया है, यानी जो पात्मा खोई थी उसे प्राप्त कर लिया है। उसका प्राप्त करना तो उसे जान लेना ही है। इसीलिये इसके पहले 'ज्ञानसछिन्न- सशय' कहा है। सशयकी अधियालीमें ही तो प्रात्मा लापता थी और यह सशय पैदा हुआ था अज्ञानसे, जैसा कि आगे लिखा है। अब ज्ञानके