पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६१५

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छठा अध्याय ६२५ 'सत्यवत' शब्द देना ही ठीक था। मगर ऐसा न करके सन्यस्त शब्द देनेसे यह प्राशय टपकता है कि सन्यासके भीतर स्वरूपत त्याग पाता है। क्योकि सकल्पोका तो स्वरूपत. त्याग ही विवक्षित है। अब बात रही यह कि वह स्वरूपत त्याग कर्मोका है या संकल्पोका या और चीजोका । यदि यह माना जाय कि सन्यासका अर्थ केवल सकल्पोका ही स्वरूपत त्याग है, तो 'सन्यस्तसकल्प 'मे सकल्प शब्द देनेकी क्या जरूरत थी ? उसका काम तो सन्यस्त शब्दसे ही हो जाता है। इससे पता चलता है कि सन्यासका अर्थ केवल सकल्पत्याग नहीं है। अब यदि और चीजोका भी त्याग माने तो वे चीजे कौन-कौनसी है, यह कैसे जाना जाय ? इसलिये मानना ही होगा कि सामान्यत सभी कर्मो, सकल्पो और रागद्वेषादिके स्वरूपत. त्यागको ही सन्यास कहते है। इनमे सकल्पत्यागको सबसे जरूरी समझ और उसके विना कर्मोंका त्याग कोरा ढोग मानके ही यहाँ सन्यस्त सकल्प.' लिखा गया है। इसी सकल्पत्यागको लेके आगे बढनेमे सबसे पहले यह बताना आवश्यक हो जाता है कि सकल्पत्यागके होते हुए भी कर्मोके स्वरूपतः त्यागका असली अवसर कब और किसलिये आता है। कर्मकी आवश्यकता कहाँतक है, उसका काम है क्या, तथा उसके त्याग अर्थात् सन्यासकी भी आवश्यकता कब और किसलिये है यही वाते आगे कहते है- पारुरुक्षोर्मुनर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥३॥ (कोई भी) मननशील योग-ज्ञान या समाधि में जाने एव उसे प्राप्त करनेको इच्छावाला वन जाय इसका कारण कर्म है-इसीके लिये कर्म करनेकी जरूरत है । उसीको (आगे चलके) ज्ञान तथा समाधिमे पारुढ -पक्का -वना देनेके लिये ही कर्मोके त्यागकी जरू- रत है ।३। ४०