पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६२९

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छठा अध्याय अर्जुन उवाच योऽय योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात् स्थिति स्थिराम् ॥३३॥ चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् । एतस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥३४॥ अर्जुन कहने लगा-हे मधुसूदन, यह जो समदर्शन रूपी योग आपने (अभी अभी) वताया है, मनकी चचलताके करते इसकी मजबूतीका होना मै (सभव) नहीं समझता। क्योकि हे कृष्ण, यह मन तो चचल है, बुरी तरह मथ देने, बेचैन कर देने वाला है, बलवान है और बडा मजबूत है। (इसीलिये) मै तो इसे बाँध रखनेको हवाको बाँध रखनेकी ही तरह कतई नामुमकिन मानता हूँ ।३३।३४। श्रीभगवानुवाच असंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥३॥ श्रीभगवान बोले-हे महाबाहु, वेशक मन चचल (और इसीलिये आमतौरसे) कावूमे नही आनेवाला है। फिर भी हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्यके वलसे ही कावूमें आता है ।३५॥ इस श्लोकके उत्तरार्द्धमे जो कुछ लिखा है ठीक वही वात 'अभ्यासवैराग्या तन्निरोध" (१।१२) योगसूत्रमे अक्षरश पाई जाती है। इसका व्याख्यान करते हुए व्यास भाष्यमे लिखा है कि "चित्तनदीनामो- भयतोवाहिनी, वहति कल्याणाय, वहति पापाय च । यातुकैवल्यप्रारभारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । ससारप्राग्भाराऽविवेकविषय निम्ना पापवहा । तत्र वैराग्येण विषयस्रोत खिलीक्रियते । विवेक दर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोतउद्घाटयतइत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोध ।"