६८२ गीता-हृदय हे पार्थ, अनन्य चित्तसे--मनको अन्य पदार्थोमें जाने न देकर-जो मुझ परमात्माको नित्य ही याद करता है उस सदा योगारूढ योगीके लिये तो मै सुलभ ही हूँ।१४। मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः ससिद्धि परमां गताः ॥१५॥ परम ससिद्धि-जीवन्मुक्ति-की दशावाले महात्मा जन मुझ परमात्माका ही रूप होके दु खके घर (और) बारवार होनेवाले (इस) पुनर्जन्मसे रहित हो जाते है ।१५। प्राब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोर्जुन । मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥१६॥ हे अर्जुन, हे कौन्तेय, ब्रह्मलोक तकके सभी स्थानोंसे पुन लौटना- जन्म लेना--पडता ही है । केवल मुझे प्राप्त होने पर ही पुनर्जन्म नहीं होता ।१६॥ यहाँ यह न भूलना चाहिये कि गीतामे जो वारबार स्मरण या याद करनेकी बात आती रहती है और भक्तिकी भी, वह माला जपने और नाचने-कूदनेवाली नहीं है। ज्ञानीको भी भक्त ही कहा है और वही सर्वोत्तम है । मगर वह तो नाचता-कूदता नही । भक्तिका तो अर्थ ही है समाधि या मनको आत्मामें ही डुबो देना, टिका देना । इसीलिये स्मरणका भी अर्थ है तदाकार वृत्ति या मनके सामने आत्माके अलावे और किसीका न होना ही। यहाँ जो कह दिया कि ब्रह्मलोक तक भी जाके वापिस आना और जन्म लेना पडता है वह कुछ नई-सी बात हो गई। क्योकि साधारणतया यही माना जाता है कि ब्रह्मलोक जानेवाले मुक्त हो जाते है । इसीलिये अव जरूरत पड़ गई कि जरा विस्तारसे यह बात समझा दी जाय । फलत' खुद ब्रह्माकी भी आयुकी ओर इशारा करते हुए इस बातका स्पष्टीकरण
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