पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६९३

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७१० गीता-हृदय का तत्त्वज्ञान-~-यथार्थ ज्ञान-नही होता। इसीसे वे चूकते है, उनका पतन होता है। कारण, तत्त्वज्ञान या प्रात्मरूपसे भगवानका साक्षात्कार ही असल चीज है। "विद्या" और 'येऽप्यन्य' श्लोकोमें-दोनो ही जगह- 'माम्' आया है। इससे स्पष्ट है कि दोनो ही प्रकारके लोग एक ही श्रेणीके है। इनमें जो फर्क है वह बताया जा चुका है। श्रद्धाका उल्लेख होनेसे यह सिद्ध हो जाता है कि उसके बिना जो कुछ किया जाता है वह वेकार इस प्रकार चूके तथा पथभ्रष्ट लोगोकी दशाका वर्णन करनेका फल यह होता है कि जो लोग आत्मज्ञान और भगवानके मार्गपर चलते है और जिनका वर्णन "अनन्याश्चिन्तयन्त" तथा इससे पूर्वके "एकत्वेन पृथक्त्वेन" लोकमें आया है, उनकी ओर बलात् ध्यान आकृष्ट हो जाता है । प्रयोजन भी इस निरूपणका यही है । विना घूपमें जले छायाका महत्त्व या शीतल जलका पूरा स्वाद नही मिलता है। फलतं पुनरपि उसी मुख्य विषयपर आ गये। जैसा कि कहा गया है, उस उचित मार्गपर चलनेवाले भी कई तरहके लोग होते है। इसलिये यह बताना जरूरी हो गया कि उसके द्वारा आत्मसाक्षात्कार या सर्वत्र आत्मा-परमात्माके ही दर्शनकी दशामें कैसे पहुँचा जाता है। उन विभिन्न-दर्शियोके दो विभाग करके पहलेका काम घृत, सोम आदिके द्वारा इन्द्रादि देवतामोके रूपमेन कि स्वतत्र रूपसे-~-भगवानका पूजन कहा गया है। दूसरेका सीधे भौतिक पदार्थोको ही भगवानकी जगह देवताके रूपमें पूजनेकी बात बताई गई है । ठीक उसी प्रकार यहाँ भी विभिन्न-दर्शी लोगोको दो दलोमे वाँटके पहलेका काम पत्र, पुष्पादिके द्वारा स्वतत्र रूपसे भगवानका पूजन बताया गया है। दूसरेके बारेमें सभी कामोको भगवानकी पूजा ही मान लेने और उसी भावसे उन्हें करनेकी बात कही गई है। असलमे भगवानकी ओर बढनेवाले लोगोमे पहला दल तो सभी पदार्थोंको अलग-अलग मानता ही .