पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७००

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नवा अध्याय ७१७ हमीमे मन लगायो, हमारे ही भक्त हो जाओ, हमारा ही यज्ञ करो (और) हमारा ही नमस्कार करो। इस प्रकार हमीको सब कुछ समझते हुए हमीमे मनको जोड देनेसे हमीको प्राप्त हो जाओगे ।३४॥ वेशक, इस श्लोकको जाहिरा तौर पर देखनेसे तो यही पता लगता है कि पूर्ण पहुँचे हुए ज्ञानीजनोकी ही बात इसमे है । मगर इतने अधिक विशेषण भक्तजनके पीछे लगे है कि सन्देह पैदा करते है। भगवानका यजन करे, उसे नमस्कार करे और इसीके साथ मनको उसमें एक बारगी जोड दे, यह बात समझमे आती नही। मनको उसीमे बाँध देनेका तो अर्थ ही है कि शेष क्रियायें बन्द हो जायेंगी। और अगर दोनो ही तरहकी क्रियाये चलेगी तो 'मन्मना', 'मद्भक्त' और 'आत्मान एव युक्त्वा' इन तीन विशेषणोकी सफलता कैसे होगी ? तब तो एक ही से काम चलेगा। तीनोके देनेका तो प्रयोजन ही है--खासकर जव उन्हीके साथ ‘मत्परायण' भी जुट जाता है कि चौवीसो घटे आत्मा-परमात्मामे ही डूबा हुआ मस्त पड़ा है। इसीलिये हम इस श्लोकका यही प्राशय मानते है कि नमस्कार, यजन आदिके जरिये धीरे-धीरे उस अन्तिम दशामे पहुँचनेको लक्ष्य करके ही यह लिखा गया है। फलत नवे अध्यायमे जो कई प्रकारके विवेकी जन ‘एकत्वेन' आदिके द्वारा कहे गये है वे सभी इसमे आ जाते हैं। इस अध्यायमे केवल एक ही वार सम शब्द आया है । वह समदर्शनके ही ढगकी वातका सूचक है, जैसा कि "निर्दोषहि सम ब्रह्म" (५।१६) मे है। ७,८ अध्यायमें तो यह आया ही नही है । इति श्री० राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥६॥ श्रीमद्भगवद्गीताके रूपमे जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका राजविद्या राजगह्य नामक नवाँ अध्याय यही है ।।६।।