पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७१८

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दसवां अध्याय ७३७ हे अर्जुन, सृष्टियोका आदि, मध्य और अन्त मै हूँ। (सभी) विद्याओ- में अध्यात्म विद्या-आत्मज्ञानशास्त्र-(और) विवाद करनेवालोमे वाद मै हूँ।३२॥ अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च । अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुख. ॥३३॥ अक्षरोमे अकार और समासोमे द्वन्द्व मै हूँ। मै ही अविनाशी काल हूँ (और) जगत्को कायम रखनेवाला सर्वव्यापी भी मै हूँ।३३। मृत्यु. सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् । कीत्तिःश्रीक्चि नारीणा स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥३४॥ सबको मारनेवाली मौत और आगे होने--पैदा होने या प्रगति करने वालोकी उत्पत्ति तथा प्रगति मै हूँ। स्त्रियोमे कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा (भी मै हूँ)।३४। वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासाना मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥३५॥ (अनेक प्रकारके) सामोमे वृहत् नामक साम और छन्दोमे गायत्री हूँ। महीनोमे मार्गशीर्ष-अगहन-और ऋतुअोमे वसन्त द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् । जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥३६॥ छलनेवालोमे जूया (और) तेजस्वियोमे तेज हूँ। (विजयियोका) विजय, (उद्योगियोका) उद्योग (और) सात्त्विक पदार्थोका सत्त्वगुण मैं हूँ।३६॥ वृष्णीना वासुदेवोऽस्मि पांडवानां धनजयः । मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशनाः कविः ॥३७॥ ४७