ग्यारहवां अध्याय ७५६ करनेवाला आपका रूप है उसे ही पुराने और आदमीके रूपमे देखना चाहता हूँ। क्योकि यह आदमीका न होके भगवान्का ही रूप है। इसमे 'तथा' और 'तेनैव' भी ठीक बैठते है । यही वजह है कि हमने 'चतुर्भुजेन' शब्दको एक न मानकर दो-चतुर्भुज+इन--माना है और 'सहस्रबाहो' तथा 'विश्वमूर्ते'की ही तरह इन दोनोको भी सम्बोधन ही माना है। 'इन' शब्दका अर्थ है स्वामी और.श्रेष्ठ । इस तरह हे चतुर्भुज, हे स्वामिन्, ऐसा अर्थ हो जाता है। एक यही शब्द कठिनाई पैदा करता था और वही अब दूर हो गई। इसपर- श्रीभगवानुवाच मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् । तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥४७॥ श्रीभगवान कहने लगे हे अर्जुन, (तेरे ऊपर) प्रसन्न होके ही मैने तुझे अपनी सामर्थ्यसे यह (वही) तेजमय, अनन्त, मूलभूत, विलक्षण विश्वरूप दिखाया है जिसे तुझसे अन्य (किसी)ने भी पहले देखा न था।४७॥ न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुप्रैः। एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥४॥ हे कुरुवीर शिरोमणि, न वेद (पढने ) से, न यज्ञ (करने) से, न (सद्- ग्रथोके) अध्ययनसे, न दानसे, न अन्य क्रियाप्रोसे (और) न कठिन तप- स्यानोसे ही (इस) मनुष्य लोकमे तुम्हारे अलावे दूसरा कोई मुझे इस रूपमे देख सकता है।४८। मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृड्ममेदम् । व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥४६॥
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