पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७४२

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गीता-हृदय . तो वेदादिके वलसे भी जो दर्शन नही हो सकता है वही तुझे मिला है और कहाँ तू उलटे घबराता और वेहोश होता है ! यह क्या? राम, राम । लेकिन वही वात दूसरे श्लोकमें अनन्य भक्तिके साथ वेदादिके मुकाविलेके लिये ही आई है, ताकि इस भक्तिका पूर्ण महत्त्व समझा जा सके। दूसरी वात यह है कि यहाँ जो कई वार कहा है कि कभी किसी और ने यह रूप नही देखा, उसका मतलब यह है कि यह तो आत्मदर्शनका प्रयोग था जो अर्जुनके ही लिये किया गया था। इससे पहले यह प्रयोग किसीने किया ही नहीं। अगर कभी किसीने देखा भी हो तो कौतूहलवश ही। क्योकि उसे यह दृष्टि कहाँ मिली और न मिलनेपर वह इस दृष्टिसे कैसे देखता ? प्रयोग तो करता न था। तीसरी वात है अन्तिम श्लोक की। इसमें जो कुछ कहा गया है वह आत्मदर्शीकी बात न होके उधर अग्रसर होनेवालेकी ही है, जो अलम सव कामोंके फलस्वरूप प्रात्मदर्शन करके ब्रह्मरूप बनता है। प्रसग और शब्दोंसे यही सिद्ध होता है। इति श्री० विश्वरूपदर्शनं नामकादशोऽध्यायः ॥११॥ श्रीम० जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका विश्वरूप दान नामक ग्यारहवां अध्याय यही है ।