७७२ गीता-हृदय गेग ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मुझीमे अपने चित्तको चिपका देनेवाले ऐसे लोगोका (इस जन्म)मरण रूपी ससार-सागरमे जन्द ही उद्धार कर देता हूँ।१७। भय्येव मन प्राधत्स्व मयि बुद्धि निदेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्वं न संशयः ॥८॥ (इमलिय) मुझीम मन जोट दे (और) बुद्धिको भी मुझीमे लगा दे। (परिणाम यह होगा कि) इसके-मरनेके बाद या इतना कर लेने पर वेगक तुम मुझमे ही निवाम करेगा-मेरा ही स्वरुप हो जायगा 11 अय चित्त समाधातु न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्त धनजय ॥ लेकिन यदि, हे धनजय, मुझमे चित्तको निश्चल रूपसे लगा नहीं सरता, तो (इम वातके) अभ्यामम्पी उपायमे ही मुझे (क्रमग ) प्राप्त गन्ना गल्प कर ले ।। यहाँ "प्राप्त इन्छ"--"पानेकी इच्छा कर ले"का ही अभिप्राय हमने "माप कर ले", लिया है और यही उचित भी है। इच्छा मायने तो कुछ होता जाता नहीं, जबतक नाप न कर ले । प्रभ्यामेऽप्यसमोऽसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्यमपि फर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि ॥१०॥ (घोर अगर) अन्यान भी न कर ग नो मदर्थ कम करने में ही लग जा। (योनि) मदयं मोको करते हुए भी (धीरे-धीरे) उठगिदि मान बरही गा ।१० प्रयंनदप्यानोमि फत्तुं मद्योगमाश्रित । मर्यरमंपनत्याग तन. पर यतात्मवान् ॥११॥
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