७७६ गीता-हृदय ऊँची चीज उन्हें जंचती है वह इनमे कौनसी है ? चारो तो हो नहीं सकती है। और अगर चारो ही हो, तो गजब होगा। क्योकि साख्य, ज्ञान या समाधिकी अपेक्षा उस आखिरी भक्तिको भी श्रेष्ठ ठहरानेकी हिम्मत जिसे हो वह सचमुच वहादुर है, दिलेर है । अगर यह कहा जायं कि सबसे ऊपर वाली श्रेष्ठ है तो क्यो ? गीताने तो सबोको ही एक ही सिल- सिलेमें गिनाया है । यह भी तो नही कहा है कि इनमे फलाँसे ही हमारा आशय है। लेकिन अगर हमारी कही वात मानी जाय तव तो वस्तुस्थितिका सवाल होता ही नहीं। तब तो मार्गका सवाल ही रहता है और अधि- कारियोंके हिसाबसे ये चारो ही अच्छी है-जो जिसके योग्य हो, जिसका अधिकारी हो वह उसे ही करे। क्योकि जनसाधारणके अनुकूल चारो ही है। इनमे भी जो सबसे नीचेकी है वही सबसे ज्यादा लोगोके लिये सभव होनेसे उस दृष्टिसे वही सबसे श्रेष्ठ है, इस कहनेमे कोई हर्ज नही है । क्योकि वह ज्ञानकी जगह लेने या सचमुच उससे भी ऊँचा दर्जा लेने तो जाती नहीं। यहाँ तो काम चलानेकी ही बात है। इसी अभिप्रायसे पागेका-~१२वा-श्लोक भी इस मौके पर ठीक ठीक आ बैठता है । यो तो इस श्लोककी वडी फजीती की गई है। हरेक टीकाकारने अपने ही खयालके अनुसार इसे बुरी तरह घसीटा है। किन्तु हमारे जानते जो इसका सीधा-सादा अर्थ है वह यो है। फलत्यागके द्वारा मनको थोडीसी गाति और थोडासा चैन मिलना शुरू हो जाता है जो धीरे-धीरे बढता जाता है। असलमे जोगमें आके नासमझ लोग जितनी मुस्तैदीसे भले-बुरे काम कर बैठते है, पीछे जोश ठडा होनेपर उतनी ही ज्यादा उन्हें वेचैनी और धवराहट होती है, अगान्ति होती है । क्योकि उन कर्मोके भयकर परिणाम आँखोंके सामने नाचने जो लगते है। मगर ज्योही उनने यह समझा कि फल तो भगवदर्पण हो गये, कि
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