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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७५९

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बारहवाँ अध्याय ७७६ . हो, सुख और दु खमे एक रस रहे, क्षमाशील हो, बरावर सतुष्ट रहे, मनको काबूमे रखे, दृढ निश्चयवाला हो और मन एव वुद्धिको हममे ही जिसने अर्पित कर-बाँध-दिया हो वही हमारा प्रिय है ।१३।१४। यस्मानोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥१५॥ जिससे न तो लोग (किसी भी तरह) उद्विग्न हो, जो लोगोसे भी उद्विग्न न हो सके और जो हर्ष, क्रोध, भय और उद्वेग-घबराहट या परीशानी (इन सबो) से रहित हो वही मेरा प्रिय है ।१५। अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सरिंभपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१६॥ जो मेरा भक्त बेफिक्र या बेपर्वाह, पवित्र, चतुर (और) पक्षपात रहित (हो), जिसमे भय या परीशानी न हो (और) जो सभी प्रकारके सकल्पोसे सर्वथा रहित हो वही मेरा प्रिय है ।१६। 'यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७॥ जिस भक्तको न तो किसी चीजसे खुशी हो और न रजिश, जिसे न तो कोई चिन्ता हो न आकाक्षा और जो वुरे-भले सभीसे नाता तोड चुका हो वही मेरा प्रिय है ।१७। समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवजितः ॥१८॥ तुल्यनिन्दास्तुतिमानी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्ने प्रियो नरः ॥१९॥ जो शत्रु और मित्रमे सम है-जिसके शत्रु मित्र हई नहीं, मान- अपमानमे भी जो सम है-विचलित नही होता, शीत-उष्ण, सुख- -