तेरहवां अध्याय ७८९ सभव था ? . तो मानते ही है। उन्हीकी ओर इशारा करते हुए उपनिपदो तथा ब्राह्मण- ग्रथोमे प्राय जगह-जगह लिखा पाया जाता है कि "ऐसा तो ऋषिने भी कहा है" "तदुक्तमृषिणा"। वेदमत्रोके रूपमें ही सही या और रूपमें भी सही। हर हालतमे ऋषियोने पहले बहुत कुछ कहा है जरूर। वह लोग स्वतत्र रूपसे आत्मा और सृष्टिका विवेचन न करते, भला यह कैसे उनका तो यही काम ही था। इस तरह एक तो उनका स्वतत्र कथन है। दूसरे वैदिक मत्रोमे भी “नासदीय सूक्तमे", जो ऋग्वेदके दसवे मंडलका १२६वाँ सूक्त माना जाता है, तथा अन्यान्य बीसियो मत्रोमे ब्रह्मसे इस सृष्टिके विस्तारका उल्लेख है । वैदिक मत्रोको ही यहाँ छन्द पदसे लिया है । “एक सन्त बहुधा कल्पयन्ति" (ऋग्वेद १०॥ ११४१५), "एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" (ऋ० १११६४।४६), "देवाना पूर्येव्युगेऽसत सदजायत" (ऋ० १०।७२।२), तथा "द्वासुपर्णा सयुजा" (१।१६४।२०) आदिमे कितना सुन्दर और घाद-विवादात्मक वर्णन है | पुरुषसूक्तमे, जो यजुर्वेदमे भी पाया जाता है, यही बात कितनी विशद रूपमे है ! वैदिक मत्रोके सिवाय वेदके ही ब्राह्मण भागमे जो उपनिपद माने जाते है उनमे तो इस सृष्टिका वर्णन तर्क और युक्तियोके साथ आया ही है। यदि केवल छान्दोग्यके छठे अध्यायको ही देखे तो तबीअत खुश हो जाय । यो तो प्रश्न, श्वेताश्वतर आदिमे भी यही बाते आती है। वहाँ भी पूरा वाद-विवाद एव गभीर विवेचन पाया जाता है। मुण्डकोपनिषद (३।१।१)मे तो ऋग्वेदका "द्वासुपर्णा सयुजा" मत्र ही ज्योका त्यो आया है। छान्दोग्यके छठे अध्यायके दूसरे ही खडमे पहले कहा है कि सृष्टिके पहले केवल सत् या ब्रह्म था और उसीसे सृष्टि हुई “सदेवसोम्येदमन आसीदेकमेवाद्वितीयम्" । उसके बाद ही कुछ मतवादोका उल्लेख करके और यह कहके कि वह तो पहले असत् या शून्य ही मानते और उसीसे
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