७६६ गीता-हृदय अब आगेके श्लोकमे यहाँतक कही गई सभी वातोका उपसहार करते हुए इसकी आवश्यकता भी बता देते है। किन्तु उसके बाद पुनरपि क्षेत्र या प्रकृतिका विशेष व्योरा जानना जरूरी है। क्योकि उसके गुणो और चालोको जाने बिना उससे पार पा नहीं सकते। साथ ही, क्षेत्रज्ञ उसमें किस तरह फंसता है यह भी जान लेना जरूरी होनेके कारण उसका भी कुछ ब्योरा मागे दिया गया है। इस तरह “यो यत्प्रभावश्च" इन दोनोका विशेष विवरण भी हो जाता है। खासकर 'य' या 'जो'का विवरण बहुत जरूरी है। क्योकि वह अभी अच्छी तरह बताया जा सका है नहीं। इति क्षेत्र तथा ज्ञान ज्ञेयं चोक्तं समासत.। मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥१८॥ सक्षेपमे क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय यही कहे गये है। मेरा भक्त इसे ठीक- ठीक जानके मेरा ही रूप हो जाता है ।१८। उत्तरार्द्धसे तो यह भी स्पष्ट है कि जिस भक्तिकी बात बारहवें अध्यायमे आई है वह साधन ही है। उसका भी नतीजा अन्तमें यह ज्ञान ही है, जिसे विज्ञान या आत्मसाक्षात्कार कहते है। आखिर भक्त कहनेके वाद और मेरा स्वरूप बननेके पहले पूर्वकालिक क्रियाके रूपमे जो 'विज्ञाय' बीचमे आ गया है उसका स्वारसिक अभिप्राय और होई क्या सकता है यदि हठ या पक्षपात छोडके देखे तो मानना होगा कि पहले भक्ति होनेसे भक्त वने, फिर विज्ञान हुआ और उसके बाद अन्तमें मुक्ति हुई । हाँ, यह विज्ञानी भी भक्त होता है । मगर वह तो "चतुर्विधा" (७।१६-१६) के “तपा ज्ञानी नित्ययुक्त" शब्दोमें ही कहा जा चुका है। प्रकृति पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि । विकाराश्च गुणाश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥१६॥ प्रकृति और पुरुप या क्षेत्र एव आत्मा इन दोनोको ही अनादि समझो । ?
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