पन्द्रहवाँ अध्याय ८२५ ब्रह्मसे जरा भी भिन्न नही। इस तरह जितने शरीर हो उतने जीव बन भी गये और वे ब्रह्मरूप भी रहे । प्रश्न होता है कि यदि जीव ब्रह्मका स्वरूप ही है तो फिर उसका आवागमन या जीवन-मरण कैसा ? ब्रह्म तो सभी जगह है । इसीलिये उसमे क्रिया असभव है। साथ ही, वह सासारिक विषयोसे नाता कैसे रखता है ? वह तो सर्वत्र एकरस है । फिर विषयोको भोगने और सुख- दुःखमे पडनेके मानी क्या है ? इन्ही वातोके उत्तर सातवेके उत्तरार्द्ध और शेष दो श्लोकोमे दिये गये है। आईनेके चलानेसे उसमे रहनेवाला चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब इधर-उधर डोलता है। यहाँ मन, इन्द्रियादिको मिलाके जो सूक्ष्म शरीर होता है वही आईना है। उसमे रहनेवाले प्राण खूब चलते है। इन्द्रियाँ और मन भी क्रियाशील है। बस इन्हीके चलनेसे जीवका आवागमन माना जाता है। जब मनुष्य मरने लगता है तो जीव इसी सूक्ष्म शरीरके साथ स्थूल शरीरसे निकल जाता है । वही घूमता-घामता पति-पत्नीके वीर्य और रजमे प्रवेश करके नवीन शरीरके गर्भाशयमे और पीछे नवीन शरीरमे भी इसी सूक्ष्म शरीरके साथ प्रविष्ट होता है। इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही कर्मवाद प्रकरणमे डाला जा चुका है। इसी प्रकार इन्ही इन्द्रियोके द्वारा ही विषयोका भोग भी करता है। विषयोमे तो जाती है इन्द्रियाँ ही। मगर यही उनका अधि- ष्ठाता है। इसीलिये इस पर ही जवाबदेही आती है । मालिक या अधि- ष्ठाता ही नौकरोकी हार-जीत या कामोका जवाबदेह होता है। उनके करते सुख-दुख और हानि-लाभका भी अनुभव करता है । यदि नाता तोड ले तो कुछ न हो। मगर शरीरसे जीवका नाता तो ज्ञानसे ही टूटता है न ? मरणोत्तर प्रयाण करने और फिर नये शरीरमे आनेके दान इन्द्रियाँ तो रहती है वही पुरानी। मगर उनमे वह शक्ति नही होती जो शरीरमे
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