सोलहवां अध्याय ५३७ श्लोकमे निषेधात्मक बात कही गई है। मगर जब हम गौर करे तो पता लगेगा कि दैवी सम्पत्तिके रूपमे जो बाते कही गई है वह आसुरी सपत्तिके मुकाबिलेके ही लिये, ताकि इनका महत्त्व झलक जाये और लोग मुस्तैदी- से इन्हे सम्पादन करें। यही वजह है कि जहाँ तेरहवे अध्यायमे एक भी आसुरी बातको न कहके साफ ही कह दिया था कि दैवी सम्पत्तियो एवं ज्ञानके साधनोसे उल्टी जितनी है वह सभी आसुरी सम्पत्ति तथा अज्ञानके साधन है और इस तरह कमसे कम इक्कीस तो आ गई है, तहाँ यहाँ चौथे श्लोकमे सिर्फ छेका ही नाम लेके काम खत्म किया है। इससे यह मतलब तो हर्गिज नही निकलता कि वाकियोको छोड ही दिया है। यह भला होगा कैसे ? फलत इसका यही अभिप्राय है कि नमूनेके रूपमे छको गिनाके इसीलिये छोड दिया है कि आगेके कुल पूरे १६ (७-२२) श्लोकोमे इन्हीका विवरण मौजूद है, इनका नगा चित्र खीच दिया गया है। बल्कि छठे श्लोकको भी उन्हीमे गिन सकते है । क्योकि भूमिकाके ही रूपमे वह आया है। उसमें कहा गया है कि जरा गौरसे सुनिये कि बात क्या है । इसीलिये छेके मानी है कमसे कम सत्ताईस दैवी सम्पत्तियोके विपरीत सत्ताईस आसुरी तो जरूर ही। अगर कुछ और भी आ जाये तो ठीक ही है । बीचमे जो पाँचवाँ श्लोक है वही इस अध्यायके मुख्य विषयकी ओर ध्यान दिलाता है । वह बताता है कि यही इसकी असल बात है । उसमे अर्जुनको आश्वासन देनेकी बात तो यो ही प्रासगिक है, ताकि उसकी घबराहट जाती रहे । तीन गुणोका पहले वर्णन आता रहा है। उनमे सत्त्वगुणके सम्पादन पर “नित्यसत्त्वस्थ" (२।४५)मे जोर दिया गया है । उसी गुणके फल- स्वरूप कुछ विशेषताएँ शरीरमे नजर आती है। शरीर और इन्द्रियाँ हलकी होती है, भारी नही रहती है, आलस्य नही रहता है और प्रकाश प्रतीत होता है। यह बात चौदहवे (१४१११)मे कही गई है। ऐसी ही .
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