पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८४८ गीता-हृदय ? घातक है। फिर आत्मदर्शन जैसी नाजुक चीजका क्या कहना इसे तो वे पलक मारते ही मटियामेट कर दे । इसीलिये जो मार्ग उनके मिटाने- का वहाँ वताया गया है वह केवल काम, क्रोधादि तक ही सीमित न रहके कर्तव्य-अकर्तव्य क्षेत्रके विस्तृत दायरेके भीतर पा जानेवाली सभी वातोको ही उसने साथमे ले लिया है । फलत कर्म या कर्त्तव्य मात्रके ही बारेमे तय पाया गया कि शास्त्रीय विधानको जानके ही तदनुसार ही अमल करना चाहिये । ठीक भी है । हरेक वातोंके जुदे-जुदे शास्त्र होते है । यहांतक कि खेल-कूदके लिये भी लम्बे-चौडे शास्त्र बन चुके है। इसलिये यह तो उचित ही है कि जो भी कुछ करना हो उससे पहले तत्सम्बन्धी शास्त्रका अनुशीलन किया जाय, उसके जानकारोसे ही पूछ-ताछ की जाय । दूसरा चारा हई नही, यदि सफलता चाहते है। इसपर एकाएक अर्जुनके भीतर खलवलीका मच जाना और उसका चटपट प्रश्न कर बैठना स्वाभाविक था और इसीसे इस अध्यायका श्रीगणेश भी हो गया। शास्त्र और उसका विधान ये शब्द कुछ ऐसे है कि जनसाधा- रणको खटक जाते है, इस मानीमे कि वे बहुत बडी चीजे है जो उनकी पहुँचके बाहरकी है । तिसपर भी तुर्रा यह कि "किं कर्म किमकर्मेति कवयो- ऽप्यन मोहिता"(४।१६) के द्वारा खुद कृष्णने ही पहले ही कह दिया है कि कर्म-अकर्मकी पहेली ऐसी पेचीदा है कि बडे-बडे दिमागदार भी चकरा उठते है । तो फिर जनसाधारण उन दिमागदारोके वनाये शास्त्रको कमे जान पायेंगे यह तो निरी असभवमी वात है। और अगर न जाने तो मारा कारवार ही वन्द हो जाय । क्योकि ऐमा ही हुक्म हो गया अर्जुनने स्पष्ट देखा कि जिसपर हमारा कोई वश न हो उसीके पहियेमें में और हमारे कर्त्तव्याकर्त्तव्यको बांध देना कहांतक उचित है । उसे तो यह बात जंच न सकी। हां, जो चीज अपने वगकी है और जिसे ईमान- दारी नया दृढ नकल्प कहते है, अपने लक्ष्य और उसकी सिद्धिके उपायम ? 1