८५० गीता-हृदय . ही मवमं होती और दृट नकल्प ही पाया जाता, तो फिर उपदेशकी जरुरत ही नयो होती? यहां तो उलटी गगा वहती है । इमीलिये नियत्रण रखना जारी है। मगर जो लोग सच्चे, ईमानदार और धुनवाले है उनके लिये तो छुट्टी ही है। उनके तो चरण चूमते है शास्त्रीय विधि- विधान । कारण, इनका भी तात्पर्य है धीरे-धीरे वैसे ही लोगोको पैदा करना । यही वात- श्रीभगवानुवाच विविधा भवति श्रद्धा देहिना सा स्वभावजा । सात्त्विकी राजती चैव तामसी चेति ता शृणु ॥२॥ सत्त्वानुस्पा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽय पुरुषो यो यच्छुद्ध. स एव सः ॥३॥ श्रीभगवान बोले (कि) देवाग्यिोकी वह स्वाभाविक श्रद्धा तीन नन्द की होती है-माविक, गजम पीर तामम । उसके बारमें और भी नुन लो । हे भारत, गवकी श्रद्धा सत्वगुण (की कमी-बेगी, ग्रप्रधानता)के ही अनुगार होती है। (क्योकि) मनुष्य तो श्रद्धामय है। (गीलिये) जिगली जंगी अदा है वह वैसा ही है । । प्रश्न हो गफना है कि उनकी पहचान क्या है ? ग्रागिर कंगे जानें पिपोत यादमी कैगा है ' उतर मुनिये-- यजन्ते मात्विका देवान्यक्षरक्षासि राजमा.। प्रेतान्भूतगादचान्ये यजन्ते तामसा जना. ॥४॥ प्रशास्त्रयिटिलं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना । नाहकारनंयफ्ना फामरागवतान्विता. ॥५॥ कांयन्न मार्गरम्प भूतग्राममचेतस । मांगन्त.मार्गरथ तान् विद्धघासुरनिश्चयान् ॥६॥ प्रधानता
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