पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८४६

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८६६ गीता-हृदय , उसके बादके पूरे २२ श्लोकोमे कुछमे जो स्वधर्मानुष्ठानकी महत्ता वताई गई है और उसीके द्वारा कल्याणकी बात कही गई है वह भी पहले खूब ही आई है। फिर सन्यास यानी स्वरूपत कर्मोके त्यागकी बात जरूरी वताके जिसके लिये वह जरूरी है उस समाधि या ध्यानका भी वर्णन कुछ श्लोकोमें किया है। अनन्तर उसी समदर्शनका वर्णन किया है जिसका वारवार वर्णन आता रहा है। उसीमें ज्ञानीभक्त नामक चौथे भक्तका भी जिक्र है। जो लोग ज्ञानके बाद भगवानमें ही कर्मोको छोडके लोक- सग्रहके काम करते है उनका वर्णन करके हठके साथ उलट-पलट करने या वाते न माननेसे अर्जुनको रोका समझाया है। यह भी कहा है कि यकीन रखो, तुम्हे प्रिय समझके ही यह उपदेश दे रहा हूँ, न कि इसमें मेरा कुछ दूसरा भी मतलव है। फिर भी आँखे मूंदके कुछ भी करनेको नहीं कहता । करो, मगर खूब सोच समझके । अन्धपरम्परा अच्छी नहीं है। अन्तमें ६६वे श्लोकमे सन्यास यानी कर्मोके स्वरूपत त्यागनेका, जिसके बारेमें अर्जुनका प्रश्न था, वर्णन कर दिया है । इस तरह गीतोप- देश पूरा किया है। अन्तमे ऐसा कहने का मौका भी इसीलिये आ गया है कि प्रात्मामे मनको हर तरहसे वाँध देने का जो अन्तिम उपदेश अर्जुनको दिया है वह तवतक सभव नही जबतक नित्य-नैमित्तिक या नियंत धर्म- कर्मोसे छुट्टी न ली जाय ? इसके वादसे अन्ततक गीतोपदेशके नियम, शिष्टाचार और परम्परा आदिका ही वर्णन है । अन्तमे कृष्णने पूछा है कि वाते समझमे पाई या नही ? इसपर अर्जुनने उत्तर दिया है कि हाँ, सब समझ गया और पापको वातें मानूंगा । इसके वादके पांच श्लोक तो सजयकी उस समयकी मनोवृत्तिकी विचित्रता बतानेके साथ ही कोन जीतेगा, कौन हारेगा यही बातें कहते है । एक श्लोक कृष्णके उस निराले तथा अलौकिक स्वरूपकी याद दिलाता है जो अर्जुनको उपदेश देनेके समय था और जिसका वर्णन हमने पहले ही अच्छी तरह कर दिया है। अब