पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८५७

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अठारहवाँ अध्याय ८७७ करनेके पहले उसकी जानकारी जरूरी है। इसलिये इस श्लोकमे जो दो त्रिपुटियाँ या त्रिक-तीन-तीन (trinity) है उन दोनोके ज्ञेय और कर्म एक ही है। यह कर्म वही है जिसे पाणिनीय सुत्रने “कर्तुरीप्सिततम कर्म" (पा० ११४।४६) के रूपमे बताया है। इन दोनोके सात्त्विक या राजस, तामस होने, न होनेपर कर्म या क्रियामे कोई अन्तर नही पडता है । इसीलिये इन दोनोका आगे विचार नहीं किया गया है । हाँ, आगे जिस कर्मको तीन प्रकारका बताया है वह इस श्लोकके अन्तके "कर्म-सग्रह "वाला कर्म ही है, जिसका विचार पहलेसे ही हो रहा है और जिसे काम, क्रिया (action) कहते है । वह जरूर सात्त्विक, राजस, तामस होता है । इन तीनो गुणोका उसपर असर जरूर होता है। इसीलिये उसका विचार आगे भी जरूरी हो गया है। अब इन दोनो त्रिपुटियोमे केवल ज्ञान और करण बच रहे । इनमे ज्ञानका आगे और भी विचार किया गया है। ज्ञान कहिये, जानकारी कहिये, इहसास (knowledge) कहिये सब एक ही चीज है । इसके बिना कुछ होई नही सकता है । इसपर सत्त्वादि गुणोका असर भी होता है। साथ ही, ज्ञान जैसा सात्त्विक, राजस या तामस होगा कर्म भी वैसा ही होगा। वह कर्म दरअसल किसमे है, किसमे नही इस निश्चयपर भी उसका असर खामखा होगा। इसीलिये ज्ञानकी तीन किस्मोका विवेचन इस कर्म-विवेचनके ही सिलसिलेमे आगे जरूरी हो गया है। इसी तरह करण कहते है कर्म या क्रियाके साधनको । जैसे कुल्हाडीसे लकडी चीरते है और बसूलेसे भी। इसीलिये लकडी चीरनेकी क्रियामे, कर्ममे कुल्हाडी और बसला करण हो गये । इन्द्रियोकी ही मददसे हम कोई भी क्रिया कर सकते है । इसीलिये हाथ-पाँव आदि कर्म-इन्द्रियाँ भी कर्ममे करण बन गई। मगर इस करणके सात्त्विक, राजस, तामस होनेपर भी कर्मके वारेमे, कि वह दरअसल किसमे है, किसमे नही, कोई असर नही