अठारहवाँ अध्याय ८७६ सुखके विवेचनमे भी जो सबसे पहले सात्त्विक सुख ही बताया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि असली सुख केवल वुद्धिकी सात्त्विकता और निर्मलतासे ही मिलता है, न कि कर्मोसे । कर्मोसे मानना भारी भूल है। वह सुख तो भीतर ही है, आत्मामे ही है, मौजूद ही है। केवल निर्मल बुद्धि चाहिये जो उसे देख सके, जान सके। उसे कही वाहरसे लाना थोडे ही है । इस तरह कर्मोको आत्मामे माननेकी जरूरत रही नही जाती है। जिस तरह इन्ही कर्मोके सिलसिलेमे पहले त्रिविध त्यागोका वर्णन आया है वैसे ही यह भी वर्णन है, न कि नये सिरे त्रिगुणात्मक सृष्टिका कोई खास वर्णन है। पहले ही कही गई बातोका कर्मके सम्बन्धमे यहाँ केवल उपयोग कर लिया गया है । इसीलिये ये “न तदस्ति पृथिव्या वा” (१८१४०) मे एक ही बार कह दिया है कि सभी भौतिक पदार्थ तो त्रिगुणात्मक ही है। इसीलिये यह कोई नई बात नही है । इस तरह कई प्रकारसे कर्मोका असम्बन्ध आत्माके साथ सिद्ध कर चुकनेपर आगेके श्लोक प्रकारान्तरसे यही बात बताते है । इनका आशय केवल इतना ही है कि यदि ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और धृति सात्त्विक हो और सात्त्विक सुखकी असलियत भी हम जान जाये, तो फिर वह नौबत आये ही नही जिससे इन कर्मोको जबर्दस्ती आत्मापर थोपे । आत्मामे इनके दरअसल न रहने और उससे हजार कोस दूर रहने पर भी जो इनकी कल्पना और थोपा-थोपी आत्मामे हो जाती है उसकी असली वजह यही है कि हमारे ज्ञान, कर्म आदि सात्त्विक न होके राजस या तामस ही होते है। यदि यह बात न रहे, यदि सबके सब ठीक हो जाये, सात्त्विक ही हो जाये और हम सात्त्विक सुखको बखूबी समझके उसीकी प्राप्तिमे लग जाये, तो सारी आफने मिट जाये। यह सही है कि सबोके ठीक होनेपर भी यदि हमारी लगन सात्त्विक सुखमे न रहे, तो सब किया-कराया चौपट ही समझिये । इसीलिये वह सबसे जरूरी है। अन्तमें ,
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