पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८६१

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अठारहवाँ अध्याय ८८१ . फलेच्छा न रखनेवालेके द्वारा जो कर्म निश्चित रूपसे आसक्तिसे शून्य होके बिना रागद्वेषके ही किया जाय वही सात्त्विक कहा जाता है । जो कर्म फलेच्छापूर्वक अहकार या आग्रहके साथ किया जाय और जिसमें वहुत परीशानी हो वही राजस कहा जाता है । जो कर्म परिणाम, बीचके नफा-नुकसान, हिंसा और अपनी शक्तिका खयाल न करके भूलसे ही किया जाय वही तामस कहा जाता है ।२३।२४।२५। यहाँ साहकारेण शब्दका अर्थ है कर्ममे हठ या आसक्ति । क्योकि फलकी इच्छा और कर्मकी आसक्ति ये दो चीजे है जिन्हे पहले बखूबी समझाया जा चुका है। पहले श्लोकमे दोनोका त्याग कहा गया है। इसीलिये इसमे दोनोका आना जरूरी है। मगर 'कामेप्सुना' शब्द तो फलेच्छाको ही कहता है। इसीलिये 'साहकारेण'का ऐसा अर्थ हमने किया है । ठीक भी है यही । जब जिद्द होती है तभी तो 'मै जरूर ही कर डालूंगा' यह खयाल होता है। इसी प्रकार क्षय शब्दका भी अर्थ हमने चलती भाषामे 'नफा-नुकसान' किया है, जिसे घाटा या टोटा भी कहते है । मगर यह अन्तिम घाटा नही है। क्योकि उसके लिये तो अनुबन्ध शब्द आया ही है । इसीलिये दानी टोटा ही अर्थ ठीक है। मुक्तसंगोऽनहंवादी घृत्युत्साहसमन्वितः। सिद्धयसिद्धयोनिर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥२६॥ रागी कर्मफलप्रेप्सुलुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः । हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥२७॥ अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥२८॥ जो आसक्तिसे शून्य हो, जो बहुत बहके न, जो धैर्य और उत्साहवाला हो (तथा) कर्मके पूर्ण होने, न होनेमे जो बेफिक्र हो वही कर्ता सात्त्विक . ५६