गीता-हृदय . हटा देने पर वचा बचाया कर्म तो रद्दी चीज है, बहुत बुरा है। इसलिये कर्मसे पैदा होनेवाले अनर्थोसे बचने के लिये इसी बुद्धिकी शरण जाओ। इसके बिना तो फलको आकाक्षा आदिके चलते दुर्दशा होती है।" "विपरीत इसके यदि वह इस बुद्धिसे युक्त-~-इससे सम्बद्ध हो जाय, तो पुण्य-पाप दोनोसे ही उसका पिंड छूट जाता है । अतएव योगकी ही प्राप्तिके लिये कोशिश करो। वही तो कर्मकी कला, हिकमत या विशेष- ज्ञता है।" यहाँ ५०वे श्लोकमें जो पुण्य-पापसे पिंड छूटनेकी बात कही गई है वह ठीक वैसी ही प्रतीत होती है जैसी आत्मज्ञानके फलस्वरूप ३८वें श्लोकमें बताई गई है। इससे यह खयाल हो सकता है कि ज्ञान और योगमें कोई फर्क नहीं है। मगर इसीके वादके ५१वें श्लोकमे जो 'हि' शब्द दिया गया है और जिसका अर्थ है 'क्योकि', उससे पता लगता है कि वह श्लोक पहलेके मतलवको स्पष्ट करता है। पहलेमे जो कुछ इस तरहके शककी गुजाइश है उसे खुद समझके ही वह इसपर और भी प्रकाश डालता है। अब जरा “कर्मज बुद्धियुक्ता हि" आदि उस श्लोकका अर्थ देखिये। वह यो है, "क्योकि बुद्धियुक्त (बुद्धिवाले) मनीषी लोग कर्मोसे पैदा होनेवाले फलोको छोडके जन्ममरण रूप वन्धनसे छुटकारा पा जाते और निरुपद्रव स्थानमे पहुंच जाते है ।" पहले श्लोकों जो पुण्य-पापके त्यागने या उनसे पिंड छुटनेकी बात कही गई है ठीक उसीका उल्लेख इस श्लोकमें "कर्मोसे पैदा होनेवाले फलोको छोडके" इन शब्दोमें किया है और कहा है कि जन्ममरण रूप बन्धनसे वे छूट जाते है । पहले श्लोकके "बुद्धियुक्ता"की ही जगह यहां "मनीषिण" कहा है। अव यदि इन सभी बातोको मिलाके गौर करें तो पता चलेगा कि भूमिका वाले ३६, ४० श्लोकोमे जो कुछ कहा गया है कि योगके करते कर्मों की बवनशक्ति खत्म हो जाती है और पुण्य-पाप होने पाते ही नहीं, वही .
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