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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८८०

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९०० गीता-हृदय इसी तरह विगुणका अर्थ है अधूरा किया हुआ और देखने में दोषयुक्त । हमने ये दोनो ही अर्थ मिलाके लिख दिये है । स्वनुष्ठितात् (सु+अनु- प्ठितात्) के भी दो मानी है, अच्छी तरह किया गया और आसानीसे किया गया । सहज शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्यके जन्मके साथ ही जो कर्म पैदा हुए वही स्वाभाविक कर्म है, जैसे वतकका तैरना, न कि पीछेसे सिखाये या बलात् लादे गये । वर्णधर्मकी यही वडी खूबी थी, न कि आज जैसी धक्कममुश्ती । यो तो हमने कही दिया है कि वर्णव्यवस्था विशेषज्ञता सम्पादनके द्वारा आत्माको कर्मसे अलग करने या सात्त्विक कर्ममे धीरेधीरे लग जानेका रास्ता साफ करती है। मगर उतनी दूर न जाके भी यदि स्वाभाविक कर्मोंको अनासक्तिके साथ करें तो भी काम वन जाये। यह अनासक्ति भी स्वाभाविक कर्मोमें ही पूरी-पूरी हो सकती है, जैसे सांस लेने या मलादिके त्यागमें । इनमे कौनसी आसक्ति किसीको होती है ? बनावटी कर्मोमे यह वात या तो असभव है या अत्यत दु साध्य । ऐसे कर्मवाले पथभ्रष्ट जो ठहरे। और पथभ्रप्टको रास्ते पर लाना तो कठिन हई। इस तरह अनासक्तिपूर्वक स्वधर्म करते हुए ही मनकी पूर्ण शुद्धि हो जाती है । फिर तो फौरन समाधिकी दशा आ जानेपर कर्मोका स्वरूपत त्याग करके पूरी निष्कर्मता प्राप्त हो जाती है । क्योकि आसक्तिके त्यागसे एक तरहका कर्मत्याग तो पहलेसे ही रहता है। मगर स्वरूपत कर्मोके करते रहने से वह पूर्ण या परम कर्म-त्याग नही होता, किंतु अधूरा। वही परम- त्याग हो गया, जव समाधिके लिये स्वरूपत भी कर्म छोड दिये गये। यदि "न'कर्मणामनारभात" (३।४) श्लोककी मिलान हम इस ४६वेसे करे तो पता लग जाय कि वही नैष्कर्म्य और सिद्धि शब्द यहाँ भी है। मगर जो कमी वहाँ बताई गई है उसकी पूर्ति करके यहां परम नैष्कर्म्यका सच्चा । रूप खडा कर दिया है।