अठारहवां अध्याय CEOE "? चीजें अपनी ही शक्तिसे बनाता और देखता है, लीला करता है, सभी जगह विहरता-विचरता है, मौज करता है। यह भी वे लोग देखे । "ध्यायतीव लेलायतीव" लिखा गया है जिसका अर्थ है, कि सभी लीलाये करता है। जब उस ब्राह्मणके शुरूमे ही जनकने याज्ञवल्क्यसे पूछा है कि इस आत्माके मददगार प्रकाश कौन कौनसे है-"किज्योतिरय पुरुष (३।१), तो याज्ञवल्क्यने, जितने भी उजाला करनेवाले या पथदर्शक सभव है उन्ही सबोको पहले गिनाके, कहा है कि एके बाद दीगरे इन्हीसे उसका पथदर्शन होता है। सबसे पहले सूर्यकी ही प्रचड ज्योतिसे उनने शुरू किया है। मगर रातमे तो वह ज्योति मिलती नही, ऐसा कहने पर चन्द्रमाका नाम लिया है। लेकिन कृष्णपक्षकी अँधियाली और अमा- वस्यामे ? तब तो चन्द्र होता नहीं। तब अग्निके प्रकाश, दीपक आदिसे ही काम चलता बताया है। तो निरे अन्धेरेमे, जहाँ दीपक भी न हो, क्या काम विलकुल ही बन्द हो जाता है ? अन्धेरेमे भी तो लोग दूरसे बातें सुनके ही जान जाते है कि कौनसा आदमी है । जबानसे रास्ते की बात सुनके वैसे ही चलते भी है । इसीलिये बात या शब्दको ही उस समय प्रकाशक और पथदर्शक मानना पडा है। मगर जब नीदके समय आत्मा- नन्दका अनुभव करता है और उठने पर याद करता है कि वडे यानन्दसे सोये थे, तब वहाँ कौनसा प्रकाश रहता है, जो आनन्दको दिखाता है ? और अगर अनुभव न करता तो उठने पर फौरन ही उसे याद क्यो करता ? जिसका अनुभव न हो उसका तो स्मरण होता नही । इसलिये शरीरके भीतर सुषुप्ति या गाढ नीदमे आनन्दका अनुभव मानना ही पड़ता है। इसी प्रकार सपनेमे जाने क्या-क्या देखता-सुनता है । हजारो चीजे देखी जाती है, यह तो सभी मानते जानते है । मगर वहाँ भी न तो शब्द ही है न सूर्य आदि ही है। फिर वहाँ कौनसा प्रकाश है, सो भी भीतर ?
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