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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८९१

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अठारहवाँ अध्याय ६११ तो हजारो है। शरीरके भीतर ही जाने कितने है। फिर उनका अनुभव वहाँ आत्माको होता क्यो नही ? इसीका उत्तर बहुत ही विस्तारके साथ ३१वे ब्राह्मणके अन्ततक दिया गया है और कहा गया है कि अगर सचमुच कोई दूसरा भी पदार्थ उसके अलावे हो तब न उसे देखे, सुने, सूंघे, छूए, खाये, पीये? दरअसल तो आत्माके सिवाय और कुछ हई नही- “न तु तद्वितीयमस्ति” । यही बात वीसियो बार कही गई है। सचमुच ही आश्चर्य है कि यदि इन्द्रियोसे देखे-सुने न भी तो मनसे तो सोचे-विचारे । मगर वहाँ तो कुछ भी नही होता। मनको तो वाहर जाना भी नही है कि इन्द्रियोकी मदद चाहिये । वह भीतर ही सोचता क्यो नही ? आखिर सपनेमे तो मन ही सव कुछ करता है न ? फिर सुषुप्तिमे भी क्यो नही करता ? इसीलिये मानना ही पड़ता है कि उस समय आत्माके सिवाय और कुछ हई नही। ठीक ही है, जिसका ज्ञान नही उसके अस्तित्वमे प्रमाण ही क्या ? यदि कहा जाय कि जिसे नीद न हो उसे तो उस समय ज्ञान होता ही है, अतएव वही ज्ञान उन वस्तुअोके लिये प्रमाण होगा, तो प्रश्न होता है कि सुषुप्तिवालेको क्या मालूम कि किसीको ज्ञान होता है ? और अस्तित्वका प्रश्न तो उसीके लिये है न ? और अगर सभीको एक ही साथ सुषुप्ति हो जाय तो? यह असभव भी नही है। प्रलयकी ही तरह वह भी हो सकती है । फलत. अद्वैत-तत्त्वको मानना ही पडता ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ॥६१॥ तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । तत्प्रसादात्परांशान्ति स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥६२॥ हे अर्जुन, सभी प्राणियोके हृदयस्थानमे ईश्वर मौजूद रहता है, मौजूद है, (और अपनी) मायाशक्तिसे उन्हें कठपुतलीकी तरह घुमाता रहता