गीता-हृदय वेचैनी और घवराहट थी, सभी कामोमे जो अनास्था हो गई थी, जो भीषण वैराग्य था और इन सबोके चलते जिस दीनताने उसपर काबू कर लिया था वह तो सचमुच ही “न भूतो न भविष्यति"का दृश्य था। गीताकी चार बाते अलौकिक थी---ऐसी वाते जिनका उल्लेख गीतामे पाया जाता है । वास्तवमे ये बाते न कभी हुई थी और न आगे हो सकती थी। इनमे पहली थी अर्जुनकी यह दशा जिसका उल्लेख हमने अभी- अभी किया है और जिसका सजीव और नग्न चित्र गीताके पहले अध्यायके बीस (२८-४७) तथा दूसरेके शुरूके नौ (१-६) श्लोकोमे पाया जाता है। जो लोग उसे योही पढ जाते है वह क्या समझ पायेगे, जवतक अर्जुनकी समृची जीवनी अपने आँखोके सामने वैसे ही न रख लें जैसे कृष्णके सामने थी ? यही कारण था कि कृष्ण परिस्थितिकी भीषणताको समझ सके थे। गीताकी ऐसी ही दूसरी चीज थी इतना देखने-सुननेके बाद कृष्णकी भावभगी, उनकी उस समयकी दशा, उनका रुख और चेहरा-मोहरा, जिसकी तरफ “तमुवाच हृषीकेश" (२।१०) श्लोकका “प्रहसन्निव" इशारा करता है । जो लोग इस समूचे श्लोकको इस पूर्व परिस्थितिको मद्देनजर रखके गौरसे पढे और उसपर दिमाग लगाये उन्हे उसके शब्दोमें कृष्णकी इस अनोखी भावभगीकी झांकी मिल सकती है । इस पूरे श्लोकमें बहुत खनी है और इसके हरेक पद कुछ न कुछ अर्थ व्यक्त करते है, जो निरे शब्दार्थसे निराली चीज है और जिसे ही काव्यकी जान कहते है। इसे पूर्णरूपेण समझने में जो दिक्कत है उसे हल करने के लिये गीताके अन्तिम श्लोकसे पहलेका “तच्च सस्मृत्य सस्मृत्य रूपमत्यद्भुत हरे । विस्मयो मे महान् राजन् हृप्यामि च पुन पुन" (१८७७) ग्लोक इसीके साथ पढ लेना चाहिये । गीतोपदेशके प्रारम्भ करनेके ठीक पहलेका वह और अन्तका यह-इन दोनोको-मिलाके देखे कि सचमुच वह रूप अलौकिक
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