पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८९८

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६१८ गीता-हृदय ? , इसके बारेमे हम काफी लिख चुके है । हमें विश्वास है कि यह बात निर्विवाद सिद्ध की जा चुकी है। इसीलिये अव यहाँ कुछ भी लिखनेका प्रश्न हई नही। हाँ, तो ऐमी नाजुक हालतमे कृष्णको भारी अन्देशा था कि कही इतनेपर भी अर्जुनकी वही हालत न हो और वह विचलितका विचलित ही न रह जाय । यही कारण है कि प्रागेकी अन्तिम बातके कहने पर भी उन्हे विश्वास नहीं हो पाया था। फलत उनने अर्जुनसे पूछ ही तो दिया कि, "अर्जुन, तुमने हमारी बाते ध्यानसे सुनी तो है ? और अगर हाँ, तो इससे तुम्हारी वह अज्ञानमूलक भूलभुलैयाँ मिटी क्या" ? “कच्चिदे- तच्छृत पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । कच्चिदज्ञानममोह प्रणष्टस्ते धनजय" (१८७२) । जब अर्जुनने इसका स्पष्ट उत्तर दे दिया कि, “भगवन्, आपकी कृपासे अव मेरा वह मोह भाग गया, सभी बातकी ठीक-ठीक स्मृति हो पाई, मेरे सभी शक काफूर हो गये और आपकी बातें मानूंगा, “नप्टो मोह स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देह करिष्ये वचन तव" (१८७३), तब कही जाके उन्हें सन्तोष हुआ। यही वजह है कि कृष्ण एक बार और भी उसे सभी उपदेशोका निचोड कह देनेको तैयार हो गये । ऐसी परिस्थिति न रहनेपर भी प्रिय जनोके सम्बन्धमे ऐसा होता ही है कि एक ही बात बार-बार कहते जाते है, खासकर ऐसे मौकेपर जव उन्हे कुछ महत्त्वपूर्ण काम करना या कही दूर देश जाना हो। यह अधिक प्रेमकी पहचान है। यह बात “इष्टोसि मे दृढमिति" शब्दोंसे साफ हो भी गई है। इसलिये लोग पुनरावृत्ति देखके ऊब न उठे। एक वात और भी है । सन्यासके सम्वन्धके अर्जुनके प्रश्नका पूरा उत्तर अभीतक दिया गया भी नहीं है । बेशक, यह कहा गया है जरूर कि कर्मोंके स्वरूपत त्यागसे पूर्ण नैष्कर्म्य हो जाता है, जिसकी अनिवार्य आवश्यकता समाधि या पूर्ण ज्ञाननिष्ठाके लिये जरूरी है। उसके बाद