अठारहवाँ अध्याय १२३ इसका प्रचार निहायत जरूरी है । उन्हे केवल अर्जुनकी ही फिक्र न थी। इसीलिये उपदेश करनेवालेकी भरपूर प्रशसा भी कर दी है और उसका सुन्दर फल सुना दिया है। निरन्तर पढते-पढाते और सुनते-सुनाते ही इसे हृदयगम किया जा सकता है, इसका प्रसार हो सकता है. इसीलिये उसपर भी जोर दिया गया है। इद ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥६७॥ य इम परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति । भक्ति मयि परा कृत्वा मामेवैष्यत्यसशयः ॥६॥ न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः । भविता न च मे तस्मादन्य. प्रियतरो भुवि ॥६६॥ अध्यष्यते च य इमं धयं संवादमावयोः । ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥७०॥ श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः । सोऽपि मुक्तः शुभाल्लोकान्प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् ॥७१॥ यह (उपदेग) तुझे तपशून्य लोगोसे कभी नहीं कहना होगा, जो न तो भक्त हो, न श्रद्धापूर्वक सुनने के लिये लालायित हो,.(प्रत्युत) हमारी निन्दा करते हो। (विपरीत इसके) जो कोई ये वाते मेरे भक्तोको सुना- येगा वह मुझमे (ज्ञानरूप) पराभक्ति करके निस्सन्देह मुझे ही पायेगा। (इतना ही नही ।) मनुष्योमे उससे वढके मेरा प्रिय करनेवाला और भूमडलमे उससे बढकर मेरा प्रिय कोई होगा भी नहीं। साथ ही, जो कोई हम दोनोके इस धर्मयुक्त सवादको पढेगा वह ज्ञानयज्ञके द्वारा मेरी पूजा ही करेगा, ऐसा मै मानता हूँ। जो मनुप्य श्रद्धायुक्त हो तथा निन्दाकी भावना छोडके इसे (केवल) सुनेगा भी वह भी मरनेपर पुण्यकर्मा लोगोंके शुभ लोको या समाजोमे जा पहुँचेगा ।६७।६८।६९।७०।७१।
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