पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/९०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अठारहवाँ अध्याय ६२९ संजय उवाच इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः । संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥७४॥ व्यासप्रसादाच्छृतवानेतद्गुह्यमहं परम्। योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥७॥ सजयने कहा (कि) इस तरह वासुदेव कृष्ण और महात्मा अर्जुनका यह अद्भुत (एव) रोमाचकारी सवाद मैने (खुदबखुद) सुना था। व्यासकी कृपासे यह अत्यत गोपनीय योग मैने स्वय योगेश्वर कृष्णसे साक्षात् कहते हुए ही सुना था ।७४।७५॥ पार्थका जो विशेषण महात्मा दिया गया है उससे भी सिद्ध हो जाता है कि अर्जुनने आत्मतत्त्व और तन्मूलक कर्म-अकर्मका पूर्ण रहस्य अच्छी तरह हृदयगम कर लिया था। सजयने यह वात धतराष्ट्र से तब कही थी जब भीष्म आहत हो चुके थे, न कि कृष्णके उपदेशके ही समय । इसीलिये भूतकालके सूचक "अश्रौषम्" तथा "श्रुतवान्" पद आये है । यह सवाद निराला है यह भी कह दिया है । ठीक ही निराला था। रोमहर्षणका मतलब है आनन्दके मारे ही रोगटे खड़े कर देनेवाला, न कि भयसें। क्योकि भयका कोई अवसर था नहीं। गीताधर्मको भी योग कहा है । यो तो गीताके सारे विषय ही योग कहे गये है। इसीलिये कृष्ण योगेश्वर है। उनसे बढके इस योगको और कौन जानता था सचमुच ऐसे योगेश्वरके मुखसे ही सुननेमे कितना आनन्द आया होगा, जब कि पीछे पढनेमे इतना ज्यादा मन आकर्षित होता और मजा मिलता है। इसीलिये तो सजयकी उस समय भी अजीव हालत थी। ?