गीता-हृदय वह तो दिमागके ही मुताविक वदलता है । वेदशास्यके वचन तो अनेक तन्हके है--एक ही बातके लिये परस्पर विरोधी वचन मिलते है । ऋपि- मुनि तो एक ठहरे नही कि उनकी वातसे काम चल जाय । नतीजा यह है कि धर्मको हकीकत अंधेरी गुफाके भीतर वन्द चीज जैसी हो गई है । तो फिर उपाय क्या ? बडे बूढे जिस रास्ते गये हो या पचोने जो तय किया हो वैसी ही वात करके काम निकालना चाहिये"-"तों- ऽप्रतिष्ठ श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋपिर्यस्य वच प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्व निहित गुहाया महाजनो येन गत स पन्या ।" श्रद्धाका स्थान मगर गीताका यह उत्तर नहीं है। काम चलानेकी या गोल-मोल बात गीताकी मानके खिलाफ है। उसे तो साफ और वेलाग बोलना है। इसीलिये वह कहती है कि "त्रिविधा भवति श्रद्वा देहिना सा स्वभावजा। मात्त्विकी राजमा चैव तामसी चेति ता शृणु ॥ सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽय पुरुषो यो यच्छूद्ध स एव स" (१७।२-३)। इमका प्रागय है, "यादमियोकी श्रद्वा स्वभावत तीन ही तरहकी होती है, सात्विक, राजस और तामम । इस श्रद्धाकी हालत सुनिये । मत्त्वगुणके तारतम्यके हिमाबसे ही सबोकी श्रद्धा होती है और प्रादमीको तो श्रद्धामय ही नमझना होगा। इमीलिये जिसकी श्रद्धा जैसी हो वह वैमा ही समझा जाय।" इसका निचोड यह है कि जिसका हृदय सत्त्व प्रधान है--जिममे मत्त्वगुणको प्रधानता है-वह सात्त्विक आदमी है। जिसमें मत्त्व दवा हुआ है और रजोगुणकी प्रधानता है वह राजस है । जिसमे मत्त्वके बहुत ही अत्प होने के साथ ही रजोगुण भी दवा है और तमोगुण हो प्रधान है वही तामसी मनुष्य होता है। और जैमा मनुष्य बैमो श्रद्धा या जैनो श्रद्धा वैमा हो मनुष्य, यही मिद्धान्त माननीय होनेके
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