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मंदिर और मसजिद
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आदर-सत्कार क्यों करे, दुर्गापाठ क्यों करावे? मुल्लाओं में उनके खिलाफ हँडिया पकती रहती थी और हिन्दुओं को ज़क देने की तैयारियाँ होती रहती थी। आखिर यह राय तय पायी कि ठीक जन्माष्टमी के दिन ठाकुरद्वारे पर हमला किया जाय और हिन्दुओं का सिर नीचा कर दिया जाय, दिखा दिया जाय कि चौधरी साहब के बल पर फूले-फूले फिरना तुम्हारी भूल है। चौधरी साहब कर ही क्या लेंगे। अगर उन्होंने हिन्दुओं की हिमायत की, तो उनकी भी खबर ली जायगी, सारा हिन्दूपन निकल जायगा।

अँधेरी रात थी, कड़े के बड़े ठाकुरद्वारे में कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। एक वृद्ध महात्मा पोपले मुँह से तंबूरे पर ध्रुपद अलाप रहे थे और भक्तजन ढोल-मजीरे लिये बैठे थे कि इनका गाना बंद हो, तो हम अपना कीर्तन शुरू करें। भंडारी प्रसाद बना रहा था। सैकड़ों आदमी तमाशा देखने के लिए जमा थे।

सहसा मुसलमानों का एक दल लाठियाँ लिये हुए आ पहुँचा, और मंदिर पर पत्थर बरसाना शुरू किया। शोर मच गया––पत्थर कहाँ से आते हैं! ये पत्थर कौन फेंक रहा है! कुछ लोग मंदिर के बाहर निकलकर देखने लगे। मुसलमान लोग तो घात में बैठे ही थे, लाठियाँ जमानी शुरू की। हिन्दुओं के हाथ में उस समय ढोल-मजीरे के सिवा और क्या था। कोई मंदिर मे आ छिपा, कोई किसी दूसरी तरफ भागा। चारों तरफ शोर मच गया।

चौधरी साहब को भी खबर हुई। भजनसिंह से बोले––ठाकुर, देखो तो क्या शोर-गुल है? जाकर बदमाशों को समझा दो और न माने तो दो-चार हाथ चला भी देना, मगर खून-खच्चर न होने पाये।

ठाकुर यह शोर-गुल सुन-सुनकर दाँत पीस रहे थे, दिल पर पत्थर की सिल रक्खे बैठे हुए थे। यह आदेश सुना तो मुँहमाँगी मुराद पायी। शत्रु-भजन डंडा कंधे पर रक्खा और लपके हुए मंदिर पहुँचे। वहाँ मुसलमानों ने घोर उपद्रव मचा रक्खा था। कई आदमियों का पीछा करते हुए मंदिर में घुस गये थे, और शीशे के सामान तोड़-फोड़ रहे थे।

ठाकुर की आँखो में खून उतर आया, सिर पर खून सवार हो गया। ललकारते हुए मंदिर में घुस गया और बदमाशों को पीटना शुरू किया। एक तरफ तो वह अकेला और दूसरी तरफ़ पचासों आदमी! लेकिन वाह रे शेर! अकेले सबके

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