आशाका अन्त दुगति है ? माई लार्ड ! वह कर्मवादी हैं, वह यही समझते हैं कि किसी- का कुछ दोप नहीं है-सब हमारे पूर्व कर्मोंका दोष है ! हाय ! हाय ! ऐसी प्रजाको आप धूर्त कहते हैं ! कभी इस देशमें आकर आपने गरीबोंकी ओर ध्यान न दिया ! कभी यहांको दोन भूखी प्रजाकी दशाका विचार न किया। कभी दम मीठ शब्द सुनाकर यहांके लोगोंको उत्साहित नहीं किया-फिर विचारिये तो गालियां यहाँके लोगोंको आपने किस कृपाके बदलेमें दी ? पराधीनता- की सबके जीमें बड़ी भारी चोट होती है। पर महारानी विकोरियाके सदय बरतावने यहांके लोगोंके जीसे वह दुःख भुला दिया था। इम देशके लोग सदा उनको माता तुल्य समझते रहे, अब उनके पुत्र महाराज एडवर्डपर भी इस देशके लोगोंकी वसीही भक्ति है। किन्तु आप उन्हीं सम्राट् एडवडके प्रतिनिधि होकर इस देशको प्रजाके अत्यन्त अप्रिय बने हैं । यह इस देशके बड़ही दुर्भाग्यको बात है ! माई लार्ड ! इस देशकी प्रजाको आप नहीं चाहते और वह प्रजा आपको नहीं चाहती, फिर भी आप इस देशक शासक हैं और एक बार नहीं दूसरी बार शासक हुए हैं, यही विचार विचारकर इस अधबूढ़ भंगड़ ब्राह्मणका नशा किरकिरा हो-हो जाता है। ( भारतमित्र १८ मार्च सन् १९०५ ई० ) एक दुराशा (६) नारङ्गीके रसमें जाफरानी वसन्ती बूटी छानकर शिवशम्भु शर्मा खटिया पर पड़ मौजोंका आनन्द ले रहे थे। खयाली घोड़की बाग ढीली कर दी थीं। वह मनमानी जकन्दं भर रहा था। हाथ-पावोंको भी स्वाधीनता दी गई थी। वह खटियाके तूल अरजकी सीमा उल्लंघन [ २०३ ]
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